Wednesday 25 December 2013

You were there....You still are! 

Reminiscences from my diary
December 14, 2013 Saturday
5 p.m. 

In train to Delhi ....will meet Sharan tonight after 2.5 years..and my babus and bhaia, tomorrow!


यूँ तो , वैसे भी -
तेरी सुध कभी बिसरी ही नहीं,
पर आज -
खबर सुनते ही -
तेरे आने की -
लगा,
साज़ों में छिपी सरगम -
बौरा गयी हो
और कर दिया हर दिशा को -
-गुंजायमान !

घुल गयी हवा में -
गुंजन  …
बिखर गए, चहुँ ओर -
सुन्दर रंग !

शीशे पर नज़र पड़ी ,
तो आज का अक्स -
-मुस्कुराता दिखायी दिया !

यूँ तो , वैसे भी -
तेरी सुध कभी बिसरी ही नहीं ,
पर आज -
किवाड़ों को बंद करने की -
कोशिश करती चटकनी -
खुल गयी!
बिखरे बिम्ब -
सजीव - से हो उठे -
और,
एक बार फिर -
सिमटने के लिए -
-तड़पने लगे !
काली रात के सफ़ेद तारे ,
हरी घास के लाल फूल ,
नीले सलिल की पीली मछलियां -
सब -
जश्न मनाते से लगे !

एक बार फिर -
आँखों में-
मानस में -
रूह में -
समय की परिधि में भी -
तू उतर आया -
-और
पहले से ही बसे 'तू' में
समा गया !

यूँ तो , वैसे भी -
तेरी सुध कभी बिसरी ही नहीं -
पर आज  … !!



Saturday 9 November 2013

In thee...

Reminiscences from my diary
November 4, 2013
6 P.M. Bangalore


अक्सर  सोचा करता हूँ -
कैसे तुझे मैं पा जाऊं !
न तेरे पास , न तेरे साथ
मैं तो तुझमें ही -
रहना चाहता हूँ !

चले तू जिस भी राह पर ,
बरगद की छाया बन -
तेरा सुकून पाना चाहता हूँ !
और,
अगर हो -
बंजर मरुस्थल ,
किसी शाद्वल को ढूंढती -
तेरी नज़र बनना चाहता हूँ !
यदि,
मरीचिका के छलावे में -
आ जाये, तू कभी -
तब तेरी तृष्णा जो खोजे-
- वो सलिल बनना चाहता हूँ !

चुने अगर  कोई  नज़्म तू , कभी ,
गुनगुनाने के लिए -
तो उस नज़्म के अक्षर बन -
तेरे होठों पर थिरकना चाहता हूँ !
और,
गाते-गाते
अगर बिगड़ जाये लय -
तो सुरों को पिरोता, संजोता ,
कोई राग बनना चाहता हूँ !

 जब कोई रात बुने -
मसरूफ़ियत से -
तेरी आँखों में नींद का जाल ...
तब एक सुन्दर सपना बन -
उस जाल में, सितारे की तरह -
पिरना चाहता हूँ !
और,
अलसाये से दिन में, कभी,
लग जाये अगर  आँख ,
तब, तेरे कमरे की  दीवार पर -
ढलती धूप बन -
तेरी झपकी में ,
घुलना चाहता हूँ  !

किसी शाम , जब तू,
लौट रहा हो घर ,
और, बादलों ने रचाया हो -
षड़यंत्र कोई -
तब,
तेरे चेहरे से -
धीरे - धीरे सरकती -
बारिश की -
पहली बूँद  बनना चाहता हूँ!

किसी वीरान बीहड़ कानन में -
बौराये मृग सा-
स्वयं को ढूँढता -
कभी तू  चीखे , तड़पे -
तो तेरी नाभि में छिपी -
कस्तूरी बनना चाहता हूँ !
और,
समय की सीमा -
- जब हो समीप,
तब तेरे अक्स में मिलकर -
मोक्ष पाना चाहता हूँ !




Sunday 3 November 2013

                                                    A NIGHT ...FORLORN!

Reminiscences from my diary
November 01, 2013
1 A.M.
Murugeshpalya, Bangalore

सितम्बर के मौसम की  …
जाते सावन के सलिल से सीली  …
हल्की सर्द रात  …
आँख खुल गयी अचानक -
दो बजे थे  … शायद !
सामने खिड़की पर लगे पर्दे -
और पर्दों पर छपे -
हल्के गुलाबी फूल -
हवा के साथ ,
उड़ने के लिए -
तड़प रहे थे !
पर्दे के पीछे की जाली पर -
पड़ गयी नज़र -
लगा , तू है -
'उन ' हमेशाओं की तरह !
पर फिर लगा , नहीं  …
तू नहीं है -
'इन' हमेशाओं की तरह !

आँखें अभी भी अधमुंदी थी -
और,
यादों के किवाड़ -
खड़क रहे थे -
हवा के साथ -
कभी खुल रहे थे ,
कभी बंद  हो रहे थे !
न जाने कैसी स्मृतियाँ थीं -
और कैसा था उनका जाल -
इस पहर में भी ,
गांठें कसी रहीं !

बाहर अभी भी -
हवा सांय सांय कर रही थी  …
मानो,
इस हल्की सर्द रात में -
ठिठुर रही हो!

मानस , अभी -
तेरी यादों की गलियों से गुज़रता -
किसी नुक्कड़ पर -
आराम करने के लिए ,
ज़रा ठहरा -
तो किसी की बात याद आ गयी !
किस 'किसी' की - याद नहीं आया ,
पर, उस 'किसी' ने कहा था -
यादें अमृत सी होती हैं !
पर  …
ये कैसा अख़लास था -
जो इस पहर के इस क्षण में -
मुझे नीलकंठ बना रहा था !

खिड़की से हटाकर ,
एक नज़र कमरे पर डाली -
दीवार की हर खूँटी पर -
तेरी यादों के ढेर टंगे दिखायी दिए !
कमरे में अँधेरा था !
पता नहीं चल रहा था -
कौन सी याद ,
कौन सी गली ,
कौन सा नुक्कड़ -
किस खूँटी पर था !

ऐसे ही कुछ देर  …
अँधेरे से गुफ्तगू करता रहा -
और जब ऊब गया ,
तो,  फिर से  …
खिड़की की ओर देखने लगा !
सोचा था -
कोई गली तो बंद मिलेगी !
कहीं तो अंत होगा !
पर , न  … तू  …  तुझसे परिभाषित पल -
अनंत - व्योम से !
अविरल - सलिल से !
अन्तर्निहित - संज्ञा से !!

Saturday 2 November 2013

THAT ANOTHER DAY..!!

Reminiscences from my Diary
October 29, 2013
11:30 P.M.
Murugeshpalya, Bangalore


आज एक बार फिर -
सूर्य का सृजन हुआ !
आज फिर ,  एक चाँद -
- फीका पड़ गया !
कोहरे के झीने कपडे से -
- चेहरा छुपाये ,
आसमान ने -
- लूट लिया निशा का घूंघट  …
… और ,
झड़ गए सभी सितारे !

बिना मेघदूत के ही आज -
- रश्मियों की धूल  उड़ाता -
चल दिया बादलों का कारवां !
सलिल के घड़े , आज फिर ,
टूटते - टूटते रह गए !
धूप के जूनून से -
परछाइओं की काया झुलस गयी !
समय का अर्जुन -
युगों के रथ पर सवार -
आज फिर, कृष्ण की बाट जोहता रहा !
इतिहास का मेहमान ,
चौके से -
- भूखा ही उठ गया !
आँख की कोर में ,
नमी -
- ठहरी ही रही !
आज भी पुरवाई -
अपनी दिशा -
- खोजती रही !

ढलती धूप के कहार ,
फिर से ,
संध्या की डोली लेने निकल पड़े !
आज फिर ,
अपने नीड़ को जाती गौरैया -
- चहचहाना भूल गयी !
आज फिर,
अपने घर को जाती सुंदरिया के -
- गले में बंधी  घंटी -
- नहीं बजी !
शामें नीरव थीं-
आज भी , नीरव ही रही !

और,
धीरे - धीरे  …
थोड़ी हिम्मत करता ,
थोडा घबराता ,
सकुचाता -
चीड़ के ठूंठों से -
फिर झाँकने लगा -
एक और चाँद!


Friday 19 April 2013

THE UBIQUITOUS YOU.....     for you, bhai..


 
REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
November 23, 2012
11:15 P.M.
750, IISc
 
 
वह खुली आँखों से बुनी कल्पना है ,
वह काल का यथार्थ भी !
वह  'मेघदूत' का बादल है ,
वह शिवानी की 'कृष्णकली ' भी !
वह पन्नों में दबा अनकहा इतिहास है ,
वह सपनों से सजता भविष्य भी !
वह चंद्रशेखर का सौंदर्य है ,
वही शिव का तांडव भी !
कभी मस्जिद से आती अजान की आवाज़ है वह ,
वही मंदिर का शंख भी !
वह माँ की लोरी में छिपा वात्सल्य है ,
वही अल्हड़ उन्स भी !
मिलन की मुस्कान है वह ,
वही विरह का आंसू भी !
वह पहली बरखा की खुशबू है ,
वह चटकती कलि का सौरभ भी !
वह बचपन की नाव है कागज़ की ,
वह झुर्रियों की लाठी भी !
वह कृष्ण है , वह स्वाति भी ,
वह इन्द्रधनुष को सजाती तूलिका भी !
वह मेघ - मल्हार पुरवाई सावन की ,
वह पतझड़ का ठूंठ भी !
वह बेरहम दुआ है , अनसुनी सदा है ,
वही अधूरी कविता भी !
वह सुर है , राग है , स्पंदन है, जीवन है ,
वह सत्य , शिव , और सुन्दर भी !
वह अग्नि का ताप है ,
वह पृथ्वी का धीर भी !
वह हवा , वही आकाश ,
वह शांत - विकराल सलिल भी ..!
 रश्मियों से बुनी धूप है वह ,
वह अलसाई - सी शाम भी !
 
जितना सोचता हूँ -
उतना पाता हूँ -
"वह" - न पास, न साथ -
"वह" तो मुझ में ही है कहीं -
श्वास की तरह ...
संज्ञा की तरह ...
अस्तित्व की तरह ....!!!
 
 
 
 
 
 
 
 

Sunday 14 April 2013

 THE MYSTIC PANORAMA...



Reminiscences from my diary

December 3, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


काफ़ी वक़्त बीत गया था ...
पर , वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था कि -
- उस पिटारे को खोलूँ -
टटोलूं -
धूल चढ़ती जा रही थी , वक़्त की ही -
उस पर ...!
पर ... आज ...
वक़्त ने मौका दे ही दिया ,
अनजाने में ही सही ...
और ,
मेरे हाथ से वह पिटारा छूट गया ,
और ,
उस पिटारे का सभी सामान -
बिखर गया छन से !
झीनी - सी रोशनी -
- छिपी हुई थी उस में -
भोर की रोशनी -
कुछ पीली ... कुछ लाल ...
पेड़ों से छनकर आती ,
और आँखों में समां जाती !
बीच में बिखरे हुए थे ,
कुछ अल्फ़ाज़ ...
शायद किसी बेतक़ल्लुफ़ नज़्म से टूटे थे ,
या फिर -
किसी मुक्तक छंद में पिरने की राह देख रहे थे !
दो - तीन अम्बियाँ भी थीं ,
शायद कच्ची , या ,
अधपकी -
जो कभी ,
निदाघ की दोपहरी में -
आम की कोटर में छिपाई थीं !
साथ ही बंद पिटारे से ,
आज़ाद हो गयी -
- संदली - सी महक़ !
 शायद सुर्ख़ - से , सूखे - से फूलों की थी ,
कौन -से फूल थे , याद नहीं ,
पर थी बहुत जानी - पहचानी - सी !
महक के साथ ही -
रु -ब- रु हो गया उस बेचैनी से -
जो कई ज़मानों से कैद थी -
इस सुन्दर पिटारे में !
पर कैसी बेचैनी थी , किस के लिए थी ,
न तब पता था , न ही आज पता है !
कुछ कागज़ के टुकड़े भी थे -
शायद चिट्ठियों के फटे लिफ़ाफ़े थे -
हवा के साथ इधर उधर उड़ रहे थे !
एक - दो पर कुछ निशान से दिखे !
एक टुकड़ा उठाकर कुछ टटोलना चाहा ,
पर , समय की नदी में वह स्याही बह गयी थी !
एक साया भी छिपा हुआ था उसमें मुद्दत से ,
आज वह भी सामने आ गया ,
लम्बा , पतला , चिर - परिचित - सा ...
उसके बाहर आते ही ,
साया साया - सा ये समां हो गया ,
और फिर,
धीरे - धीरे ,
वह साया ही मेरा आसमाँ हो गया ...!!!

















Friday 15 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(5)

Reminiscences from my diary

January 26, 2012
 5 p.m.
DoMS, IISc




ज़िन्दगी के फ़लसफ़े , ज़िन्दगी की परिभाषा सबके लिए एक - सी कहाँ होती है ! किसी के लिए ज़िन्दगी शुरू से आखिर तक एक कोर कागज़ ही रहती है जिसे किसी लिपि से सजाने का , किसी रंग से भरने का वह "कोई " बहुत मशक्कत करता है और अंत में ज़िन्दगी के सामने घुटने टेक देता है । कभी - कभी ज़िन्दगी किसी के लिए एक रंगीन "कलइडोस्कोप" बन जाती है - एक खुशनुमा चित्र , एक "पैनोरमा" ... मनो जीवन का हर झरोखा एक सुन्दर कल्पना हो या फिर सुन्दर यथार्थ ! पर ... विरले ही ऐसा हो पाता है ! अगर ज़िन्दगी इतनी उदार होती तो बात ही क्या थी !! 

मानव तो बस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही ज़िन्दगी ढूँढने का सफल - असफल प्रयास करता रहता है । किसी के लिए मंदिर की घंटी और आरती की लौ में ज़िन्दगी बसती है ,  तो किसी के लिए हिमालय की किसी दुर्गम गुफ़ा में .... कोई शिशु की किलकारी में ज़िन्दगी को परिभाषित करता है , तो कोई वृद्ध की झुर्रियों में ... किसी के लिए लाखों का साम्राज्य जीवन है , तो किसी के लिए बूट - पालिश का ढर्रा ... !!
कभी कोई संजोती कल्पनाओं और मरीचिकाओं में ज़िन्दगी पा जाता है , तो कभी- कभी , कोई - कोई दुनिया की भीड़ में ज़िन्दगी को ढूंढता रह जाता है ...!! और इस तरह मनन करते करते यह निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि अक्सर ज़िन्दगी कर्म में परिणत हो जाती है अर्थात व्यक्ति का कर्म ही ज़िन्दगी बन जाता है या यूँ कह लीजिये कि वह अपने कर्म को ही ज़िन्दगी मानने लगता है ... पर, मेरा मन अक्सर इस फ़लसफ़े की विवेचना करता है , विरोध करता है और चूँकि हृदय से अच्छा समीक्षक कोई नहीं ... इसलिए ...इस पर विश्वास करना आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य भी है!

और इस प्रकार हृदय यह तो बताता रहता है कि ज़िन्दगी क्या नहीं है , पर कभी यह नहीं बताता कि ज़िन्दगी क्या है ! हृदय भी क्या करे बेचारा , यह ज़िन्दगी रूप ही इतने धारण करती है कि इसे शब्दों में ढालना असंभव - सा लगता है ! हम सदा से यही सुनते हैं कि ईश्वर के असंख्य रूप होते हैं ... पर लगता है कि ज़िन्दगी ने इस मामले में ईश्वर को भी चुनौती दे डाली है !!




                                                                                                                        .....   to be contd.
















Tuesday 12 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(4)

Reminiscences from my diary

January 24, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


जब कभी बालकनी की ज़मीन पर बिना दरी बिछाये हाथ में गरम कॉफ़ी का मग लिए बैठता हूँ और "मामा" की छाँव में कहीं शून्य में लीं होने का असफ़ल प्रयास करता हूँ , तो अक्सर एक सवाल कौंध जाता है - क्या कभी स्वयं ज़िन्दगी अपने रस को , जिजीविषा को समाप्त कर सकती है ? थोड़ा विरोधाभास है इस वाक्य में ! यह तो वही बात हुई कि क्या कभी भास्कर स्वयं को गहन तिमिर में विलीन कर सकता है ! बाहर से लगता है कि यह कैसी शंका है ! यह तो सवाल ही गलत है । पर जीवन - दर्शन के विभिन्न झरोखों से , अट्टालिकाओं से दृष्टिपात किया जाये तो लगेगा कि यह तो वाकई गहन विचार वाला प्रश्न है जिसका जवाब देना उतना आसान नहीं जितना लगता है । यहाँ पाता हूँ कि ज़िन्दगी स्वयं ही नहीं , इससे जुड़े सवाल भी उतने ही उलझे हुए हैं - भूल भुलैया से !!

इसी तरह मैं ज़िन्दगी से आँख - मिचौली खेलता  रहता हूँ और वक़्त उम्र के पन्ने पलटता रहता है । कभी कभी मन करता है कि ज़िन्दगी को पुकारूं , उसे आवाज़ दूँ ! पर ... क्या ज़िन्दगी सुनेगी ? और अगर सुनेगी तो क्या यह भी वापस मुझे पुकारेगी ? पता नहीं ... बस एक ही बात जान पाता हूँ कि ज़िन्दगी के दिल में इतने सख्त पत्थर हैं कि आवाज़ देने पर जवाब आये या न आये , कम - से- कम अपनी आवाज़ तो लौट आएगी !



                                                                                                          .... to be contd.






 

Thursday 7 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(3)

Reminiscences from my diary

January 19, 2012
 10p.m.
750, IISc


जाते सूरज की मद्धिम पड़ती लालिमा में छत पर खड़ा अक्सर सोचता हूँ कि कैसे ज़िन्दगी सरलता से पानी की तरह अपने रास्ते चुन लेती है ! पर क्या हमारे लिए भी यह उतना ही सरल है ? जब अचानक ही कोई अपना ... कोई बहुत अपना  ...कोई आपके प्रतिबिम्ब - सा , आपको परिभाषित करने वाला आपसे दूर हो जाता है , तो लगता है मानो ज़िन्दगी रुक जाएगी पर ... ज़िन्दगी किसी के लिए नहीं रुकती - बस ... जीने के मायने बदल जाते हैं , जीने की वजह बदल जाती है । कितनी अजीब है ये ज़िन्दगी - कब किस के लिए जीना शुरू कर देती है और कब किसको भुला देती है - कोई नहीं जान पाता ! जिसके बिना एक पल भी आगे नहीं सरकता था , उसके बिना ही ज़िन्दगी भागने लग जाती है ।

पर यहाँ भी इसकी शरारत कहाँ समाप्त होती है ! शरारती ज़िन्दगी ! न श्याम , न श्वेत ! पर ज़िन्दगी को दोष देना क्या सही है ? शायद नहीं ... क्योंकि  इसने कभी हमसे वादा नहीं किया था ; कहा तो आपके , हमारे उस अपने ने था कि वह सदा आपके साथ रहेगा ; वादा किया था अपनों ने , लोगों ने , ज़िन्दगी ने नहीं कि परछाई - से साथ रहेंगे - तो फिर ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ? पर हम उन लोगों से , उन प्रतिबिम्बों से भी कहाँ कुछ कह पाते हैं ! शायद इसलिए क्योंकि ज़िन्दगी का ताना बाना इन्हीं झूठे वादों से बुना जाता है - मानता हूँ की महीन है , कच्चा भी ... पर सुन्दर है , बहुत सुन्दर । और इस सौंदर्य का सोपान करने के इतने आदि हो जाते हैं हूँ कि इन मिथ्या रंगों के बिना यथार्थ ही नष्ट हो जाये ! कई बार यह ख्याल गहरा जाता है कि क्या होगा जब ये कच्चे धागे तार - तार हो जायेंगे । क्या तब यह अस्तित्व बिखर नहीं जायेगा ! पर तभी आसमान में उड़ती पतंग अचानक कटकर पड़ोस के उन नन्हे हाथों में गिरती है और उन नन्हे - पतले होठों पर एक अलौकिक - सी मुस्कान बिखर जाती है - मुझे भी अपनी दुविधा का समाधान मिल जाता है - वास्तव में उन झूठे , टूटते ... बनते ... बिखरते ... गहराते ... छनते  वादों में ही ज़िन्दगी छिपी रहती है ! 
 इन्हें जी लो , ज़िन्दगी मिल जाएगी !!


                                                                                                               ... to be contd.






 

Tuesday 5 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(2)

Reminiscences from my diary

January 17, 2012
6 p.m.
750, IISc

... दूर गिरते किसी झरने से जैसे पानी की छींटें मुख पर पड़ती हैं और हम सोचते रह जाते हैं कि यह पानी कहाँ से आया ; उसी प्रकार जब कभी किसी राह या किसी मोड़ पर जवाब से टकराते हैं तो  हम उसे नहीं पहचान पाते  और अंत में रह जाती है उलझती - सुलझती- सी ज़िन्दगी की पहेली ।
जब कभी पतझड़ में गोधूलि के समय एकाकी - सी सड़क पर एकाकी चलता हूँ तो मन कई बार पूछता है , शिकायत करता है - क्या ज़िन्दगी दो पल के लिए भी हमसफ़र नहीं बन सकती थी । पर मेधा धिक्कारती है मन को और शब्द प्रहार करती है कि क्या तुम कभी ज़िन्दगी के साथ चल पाए ! वाकई , क्या मैंने ज़िन्दगी के सूनेपन में रस घोलने का प्रयास किया ! क्या रस- वितान ज़िन्दगी के ठूंठ को संज्ञा के रस से सींचकर हरीतिमा विस्तृत करने का प्रयास किया ! नहीं किया ! तो फिर, ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ! शिकायत तो स्वयं से होनी चाहिए । पर शायद उदासीनता की चादर इतनी गहन हो चुकी है कि खुद से शिकायत करने का भी अवसर नहीं मिलता ।
पतझड़ के मौसम में उन्ही सूनी राहों पर चलते चलते जब उदासीनता की चादर में कुछ सिलवटें आ जाती हैं और इसके महीन ताने - बाने से थोड़ी - सी हवा , थोड़ी सी रोशनी छन छन के शरीर को छूती है , तो अनायास ही मानस पटल पर कुछ खोई कल्पनाएँ जीवंत हो जाती हैं ।
लगता है मानो सावन की संध्या में, जब बयार हो कुछ गीली, कुछ बौराई सी ; जब सुन्दर - सी , नैसर्गिक - सी शांति हो चहुँ ओर और बीच बीच में कहीं दूर से कोई कोयल प्रयास करती हो इस नैसर्गिक शांति को भंग करने का पर जुड़ जाते हों सुर के तार उस कूक से ; जब नीचे बहती हो पतित - पाविनी , शस्य - श्यामला गंगा जिसकी सवारी करते हों फूल , कंकण , सिन्दूर , नारियल, दुर्गा और छोटे बच्चे और मैं खड़ा हूँ हावड़ा के पुल पर - निर्निमेष , आलोकित , एकांत !
सोचते - सोचते अचानक ही यह कल्पना और ऐसी कई कल्पनाएँ कब शून्य में विलीन हो जाती हैं , पता ही नहीं चलता । रह जाता है तो बस शुष्क - सा यथार्थ , शुष्क - सी ज़िन्दगी ।


                                                                                                               .... to be contd.




Wednesday 13 February 2013

ZINDAGI ROCKS......(1)

Reminiscences from my diary

January 14, 2012
12:15 a.m.
750, IISc

अक्सर सोचता हूँ ज़िन्दगी कौन है ; क्या है ! शिक्षक है या विद्यार्थी ! कभी लगता है ज़िन्दगी बहुत कुछ सीखती है तो कभी पाता हूँ कि ज़िन्दगी बहुत कुछ सिखाती भी है। कभी हम ज़िन्दगी को हंसाते हैं तो कभी ज़िन्दगी हमें हंसाने की कोशिश करती है। कभी शरारत , कभी हंसी , कभी ठिठोली , कभी उत्साह , कभी उमंग , कभी विश्वास - न जाने कितने ही रंगों का तानाबाना ज़िन्दगी हमारे इर्द-गिर्द बुनती है और बुनते - बुनते अनायास ही अपने जाल में उलझ जाती है। कभी - कभी तितली की तरह यह हमें भगाती है , तो कभी मधु -मक्खी की तरह हमारे पीछे भागती है। भागने - भगाने के इस सिलसिले में न जाने कितने ही चेहरे अपने हो जाते हैं ; कितने ही अनजान लोगों से मुलाक़ात होती है ; कोई नहीं मिल पाता है तो खुद अपना अस्तित्व ; अपना चेहरा । सच ! सिर्फ पहेली की तरह इसे सोचा जा सकता है । हवा के झोंके - सी है ज़िन्दगी । रोकना चाहें तो भी नहीं रोक सकते हैं।
कभी - कभी ज़िन्दगी भीड़  में गुम - सी हो जाती है तो कभी - कभी अकेली वीरान -सी होकर , हमें भी अकेला कर जाती है । हाँ ! जब कभी अकेलापन घेर लेता है , तो ज़िन्दगी ही कभी कैनवास , ब्रश, रंग , तो कभी कागज़ और कलम थमा देती है हाथ में - इन सब से ज़िन्दगी की अलग - अलग सूरतें उभरती जाती हैं और अकेलापन ! दूर घर के किसी कोने में छुप जाता है - फिर कभी लौट कर आने के लिए ।
पर जब भी कुछ कर जाती है ये ज़िन्दगी, तो मन अक्सर बस किंकर्तव्य विमूढ़ - सा होकर रह जाता है और मन का मानस सोचता है कि यूँ होता तो क्या होता! और जवाब ... जवाब ढूंढते - ढूंढते हम न जाने कितनी ही राहें , कितने ही नुक्कड़ , कितने ही झरोखे पार कर जाते हैं। पर जवाब , न ... यही तो इस ज़िन्दगी की शरारत है - ज़हन में बस सवाल छोड़ जाती है और इस सवाल के रूप में सताती रहती है ; पर फिर सोचता हूँ कि ज़िन्दगी खुद भी जवाब जानती है ! न ... नहीं ! अगर जानती तो दर-दर न भटकती।

.... to be continued!



Thursday 24 January 2013

The First Hindi Lines I fall in Love With....

 

REMINISCENCES FROM MY DIARY....

August 18, 2011

12:15 A.M., GFC, IISc 

 

ऋतु वसंत का सुप्रभात था ,

मंद- मंद था अनिल बह रहा।

बालारुण की मृदु किरणे थीं।

अगल- बगल स्वर्णाभ शिखर थे।

एक- दूसरे से विरहित हो,

अलग- अलग रहकर ही जिनको,

सारी रात बितानी होती,

निशा काल से चिर अभिशापित,

बेबस उस चकवा- चकवी का,

बंद हुआ क्रंदन , फिर उनमें ..

उस महान सरवर के तीरे ...

शैवालों की हरी दरी पर,

प्रणय- कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है। 

 कहाँ गया धनपति कुबेर वह ..

कहाँ गयी उसकी वह अल्का ?

नहीं ठिकाना कालिदास के,

व्योम प्रवाहित गंगाजल का।

ढूँढा बहुत  किन्तु लगा क्या-

-मेघदूत का पता कहीं पर।

कौन बताये वह छायामय,

बरस पड़ा होगा न यहीं पर।

जाने दो , वह कवि कल्पित था।

मैंने तो भीषण जाड़ों में,

नभ चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,

महामेघ को झंझानिल से,

गरज- गरज भिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।