The First Hindi Lines I fall in Love With....
REMINISCENCES FROM MY DIARY....
August 18, 2011
12:15 A.M., GFC, IISc
ऋतु वसंत का सुप्रभात था ,
मंद- मंद था अनिल बह रहा।
बालारुण की मृदु किरणे थीं।
अगल- बगल स्वर्णाभ शिखर थे।
एक- दूसरे से विरहित हो,
अलग- अलग रहकर ही जिनको,
सारी रात बितानी होती,
निशा काल से चिर अभिशापित,
बेबस उस चकवा- चकवी का,
बंद हुआ क्रंदन , फिर उनमें ..
उस महान सरवर के तीरे ...
शैवालों की हरी दरी पर,
प्रणय- कलह छिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गया धनपति कुबेर वह ..
कहाँ गयी उसकी वह अल्का ?
नहीं ठिकाना कालिदास के,
व्योम प्रवाहित गंगाजल का।
ढूँढा बहुत किन्तु लगा क्या-
-मेघदूत का पता कहीं पर।
कौन बताये वह छायामय,
बरस पड़ा होगा न यहीं पर।
जाने दो , वह कवि कल्पित था।
मैंने तो भीषण जाड़ों में,
नभ चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से,
गरज- गरज भिड़ते देखा है।
बादल को घिरते देखा है।