Thursday 24 January 2013

The First Hindi Lines I fall in Love With....

 

REMINISCENCES FROM MY DIARY....

August 18, 2011

12:15 A.M., GFC, IISc 

 

ऋतु वसंत का सुप्रभात था ,

मंद- मंद था अनिल बह रहा।

बालारुण की मृदु किरणे थीं।

अगल- बगल स्वर्णाभ शिखर थे।

एक- दूसरे से विरहित हो,

अलग- अलग रहकर ही जिनको,

सारी रात बितानी होती,

निशा काल से चिर अभिशापित,

बेबस उस चकवा- चकवी का,

बंद हुआ क्रंदन , फिर उनमें ..

उस महान सरवर के तीरे ...

शैवालों की हरी दरी पर,

प्रणय- कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है। 

 कहाँ गया धनपति कुबेर वह ..

कहाँ गयी उसकी वह अल्का ?

नहीं ठिकाना कालिदास के,

व्योम प्रवाहित गंगाजल का।

ढूँढा बहुत  किन्तु लगा क्या-

-मेघदूत का पता कहीं पर।

कौन बताये वह छायामय,

बरस पड़ा होगा न यहीं पर।

जाने दो , वह कवि कल्पित था।

मैंने तो भीषण जाड़ों में,

नभ चुम्बी कैलाश शीर्ष पर,

महामेघ को झंझानिल से,

गरज- गरज भिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।