Wednesday 13 February 2013

ZINDAGI ROCKS......(1)

Reminiscences from my diary

January 14, 2012
12:15 a.m.
750, IISc

अक्सर सोचता हूँ ज़िन्दगी कौन है ; क्या है ! शिक्षक है या विद्यार्थी ! कभी लगता है ज़िन्दगी बहुत कुछ सीखती है तो कभी पाता हूँ कि ज़िन्दगी बहुत कुछ सिखाती भी है। कभी हम ज़िन्दगी को हंसाते हैं तो कभी ज़िन्दगी हमें हंसाने की कोशिश करती है। कभी शरारत , कभी हंसी , कभी ठिठोली , कभी उत्साह , कभी उमंग , कभी विश्वास - न जाने कितने ही रंगों का तानाबाना ज़िन्दगी हमारे इर्द-गिर्द बुनती है और बुनते - बुनते अनायास ही अपने जाल में उलझ जाती है। कभी - कभी तितली की तरह यह हमें भगाती है , तो कभी मधु -मक्खी की तरह हमारे पीछे भागती है। भागने - भगाने के इस सिलसिले में न जाने कितने ही चेहरे अपने हो जाते हैं ; कितने ही अनजान लोगों से मुलाक़ात होती है ; कोई नहीं मिल पाता है तो खुद अपना अस्तित्व ; अपना चेहरा । सच ! सिर्फ पहेली की तरह इसे सोचा जा सकता है । हवा के झोंके - सी है ज़िन्दगी । रोकना चाहें तो भी नहीं रोक सकते हैं।
कभी - कभी ज़िन्दगी भीड़  में गुम - सी हो जाती है तो कभी - कभी अकेली वीरान -सी होकर , हमें भी अकेला कर जाती है । हाँ ! जब कभी अकेलापन घेर लेता है , तो ज़िन्दगी ही कभी कैनवास , ब्रश, रंग , तो कभी कागज़ और कलम थमा देती है हाथ में - इन सब से ज़िन्दगी की अलग - अलग सूरतें उभरती जाती हैं और अकेलापन ! दूर घर के किसी कोने में छुप जाता है - फिर कभी लौट कर आने के लिए ।
पर जब भी कुछ कर जाती है ये ज़िन्दगी, तो मन अक्सर बस किंकर्तव्य विमूढ़ - सा होकर रह जाता है और मन का मानस सोचता है कि यूँ होता तो क्या होता! और जवाब ... जवाब ढूंढते - ढूंढते हम न जाने कितनी ही राहें , कितने ही नुक्कड़ , कितने ही झरोखे पार कर जाते हैं। पर जवाब , न ... यही तो इस ज़िन्दगी की शरारत है - ज़हन में बस सवाल छोड़ जाती है और इस सवाल के रूप में सताती रहती है ; पर फिर सोचता हूँ कि ज़िन्दगी खुद भी जवाब जानती है ! न ... नहीं ! अगर जानती तो दर-दर न भटकती।

.... to be continued!