Friday 15 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(5)

Reminiscences from my diary

January 26, 2012
 5 p.m.
DoMS, IISc




ज़िन्दगी के फ़लसफ़े , ज़िन्दगी की परिभाषा सबके लिए एक - सी कहाँ होती है ! किसी के लिए ज़िन्दगी शुरू से आखिर तक एक कोर कागज़ ही रहती है जिसे किसी लिपि से सजाने का , किसी रंग से भरने का वह "कोई " बहुत मशक्कत करता है और अंत में ज़िन्दगी के सामने घुटने टेक देता है । कभी - कभी ज़िन्दगी किसी के लिए एक रंगीन "कलइडोस्कोप" बन जाती है - एक खुशनुमा चित्र , एक "पैनोरमा" ... मनो जीवन का हर झरोखा एक सुन्दर कल्पना हो या फिर सुन्दर यथार्थ ! पर ... विरले ही ऐसा हो पाता है ! अगर ज़िन्दगी इतनी उदार होती तो बात ही क्या थी !! 

मानव तो बस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही ज़िन्दगी ढूँढने का सफल - असफल प्रयास करता रहता है । किसी के लिए मंदिर की घंटी और आरती की लौ में ज़िन्दगी बसती है ,  तो किसी के लिए हिमालय की किसी दुर्गम गुफ़ा में .... कोई शिशु की किलकारी में ज़िन्दगी को परिभाषित करता है , तो कोई वृद्ध की झुर्रियों में ... किसी के लिए लाखों का साम्राज्य जीवन है , तो किसी के लिए बूट - पालिश का ढर्रा ... !!
कभी कोई संजोती कल्पनाओं और मरीचिकाओं में ज़िन्दगी पा जाता है , तो कभी- कभी , कोई - कोई दुनिया की भीड़ में ज़िन्दगी को ढूंढता रह जाता है ...!! और इस तरह मनन करते करते यह निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि अक्सर ज़िन्दगी कर्म में परिणत हो जाती है अर्थात व्यक्ति का कर्म ही ज़िन्दगी बन जाता है या यूँ कह लीजिये कि वह अपने कर्म को ही ज़िन्दगी मानने लगता है ... पर, मेरा मन अक्सर इस फ़लसफ़े की विवेचना करता है , विरोध करता है और चूँकि हृदय से अच्छा समीक्षक कोई नहीं ... इसलिए ...इस पर विश्वास करना आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य भी है!

और इस प्रकार हृदय यह तो बताता रहता है कि ज़िन्दगी क्या नहीं है , पर कभी यह नहीं बताता कि ज़िन्दगी क्या है ! हृदय भी क्या करे बेचारा , यह ज़िन्दगी रूप ही इतने धारण करती है कि इसे शब्दों में ढालना असंभव - सा लगता है ! हम सदा से यही सुनते हैं कि ईश्वर के असंख्य रूप होते हैं ... पर लगता है कि ज़िन्दगी ने इस मामले में ईश्वर को भी चुनौती दे डाली है !!




                                                                                                                        .....   to be contd.
















Tuesday 12 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(4)

Reminiscences from my diary

January 24, 2012
 11:15 p.m.
750, IISc


जब कभी बालकनी की ज़मीन पर बिना दरी बिछाये हाथ में गरम कॉफ़ी का मग लिए बैठता हूँ और "मामा" की छाँव में कहीं शून्य में लीं होने का असफ़ल प्रयास करता हूँ , तो अक्सर एक सवाल कौंध जाता है - क्या कभी स्वयं ज़िन्दगी अपने रस को , जिजीविषा को समाप्त कर सकती है ? थोड़ा विरोधाभास है इस वाक्य में ! यह तो वही बात हुई कि क्या कभी भास्कर स्वयं को गहन तिमिर में विलीन कर सकता है ! बाहर से लगता है कि यह कैसी शंका है ! यह तो सवाल ही गलत है । पर जीवन - दर्शन के विभिन्न झरोखों से , अट्टालिकाओं से दृष्टिपात किया जाये तो लगेगा कि यह तो वाकई गहन विचार वाला प्रश्न है जिसका जवाब देना उतना आसान नहीं जितना लगता है । यहाँ पाता हूँ कि ज़िन्दगी स्वयं ही नहीं , इससे जुड़े सवाल भी उतने ही उलझे हुए हैं - भूल भुलैया से !!

इसी तरह मैं ज़िन्दगी से आँख - मिचौली खेलता  रहता हूँ और वक़्त उम्र के पन्ने पलटता रहता है । कभी कभी मन करता है कि ज़िन्दगी को पुकारूं , उसे आवाज़ दूँ ! पर ... क्या ज़िन्दगी सुनेगी ? और अगर सुनेगी तो क्या यह भी वापस मुझे पुकारेगी ? पता नहीं ... बस एक ही बात जान पाता हूँ कि ज़िन्दगी के दिल में इतने सख्त पत्थर हैं कि आवाज़ देने पर जवाब आये या न आये , कम - से- कम अपनी आवाज़ तो लौट आएगी !



                                                                                                          .... to be contd.






 

Thursday 7 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(3)

Reminiscences from my diary

January 19, 2012
 10p.m.
750, IISc


जाते सूरज की मद्धिम पड़ती लालिमा में छत पर खड़ा अक्सर सोचता हूँ कि कैसे ज़िन्दगी सरलता से पानी की तरह अपने रास्ते चुन लेती है ! पर क्या हमारे लिए भी यह उतना ही सरल है ? जब अचानक ही कोई अपना ... कोई बहुत अपना  ...कोई आपके प्रतिबिम्ब - सा , आपको परिभाषित करने वाला आपसे दूर हो जाता है , तो लगता है मानो ज़िन्दगी रुक जाएगी पर ... ज़िन्दगी किसी के लिए नहीं रुकती - बस ... जीने के मायने बदल जाते हैं , जीने की वजह बदल जाती है । कितनी अजीब है ये ज़िन्दगी - कब किस के लिए जीना शुरू कर देती है और कब किसको भुला देती है - कोई नहीं जान पाता ! जिसके बिना एक पल भी आगे नहीं सरकता था , उसके बिना ही ज़िन्दगी भागने लग जाती है ।

पर यहाँ भी इसकी शरारत कहाँ समाप्त होती है ! शरारती ज़िन्दगी ! न श्याम , न श्वेत ! पर ज़िन्दगी को दोष देना क्या सही है ? शायद नहीं ... क्योंकि  इसने कभी हमसे वादा नहीं किया था ; कहा तो आपके , हमारे उस अपने ने था कि वह सदा आपके साथ रहेगा ; वादा किया था अपनों ने , लोगों ने , ज़िन्दगी ने नहीं कि परछाई - से साथ रहेंगे - तो फिर ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ? पर हम उन लोगों से , उन प्रतिबिम्बों से भी कहाँ कुछ कह पाते हैं ! शायद इसलिए क्योंकि ज़िन्दगी का ताना बाना इन्हीं झूठे वादों से बुना जाता है - मानता हूँ की महीन है , कच्चा भी ... पर सुन्दर है , बहुत सुन्दर । और इस सौंदर्य का सोपान करने के इतने आदि हो जाते हैं हूँ कि इन मिथ्या रंगों के बिना यथार्थ ही नष्ट हो जाये ! कई बार यह ख्याल गहरा जाता है कि क्या होगा जब ये कच्चे धागे तार - तार हो जायेंगे । क्या तब यह अस्तित्व बिखर नहीं जायेगा ! पर तभी आसमान में उड़ती पतंग अचानक कटकर पड़ोस के उन नन्हे हाथों में गिरती है और उन नन्हे - पतले होठों पर एक अलौकिक - सी मुस्कान बिखर जाती है - मुझे भी अपनी दुविधा का समाधान मिल जाता है - वास्तव में उन झूठे , टूटते ... बनते ... बिखरते ... गहराते ... छनते  वादों में ही ज़िन्दगी छिपी रहती है ! 
 इन्हें जी लो , ज़िन्दगी मिल जाएगी !!


                                                                                                               ... to be contd.






 

Tuesday 5 March 2013

ZINDAGI ROCKS......(2)

Reminiscences from my diary

January 17, 2012
6 p.m.
750, IISc

... दूर गिरते किसी झरने से जैसे पानी की छींटें मुख पर पड़ती हैं और हम सोचते रह जाते हैं कि यह पानी कहाँ से आया ; उसी प्रकार जब कभी किसी राह या किसी मोड़ पर जवाब से टकराते हैं तो  हम उसे नहीं पहचान पाते  और अंत में रह जाती है उलझती - सुलझती- सी ज़िन्दगी की पहेली ।
जब कभी पतझड़ में गोधूलि के समय एकाकी - सी सड़क पर एकाकी चलता हूँ तो मन कई बार पूछता है , शिकायत करता है - क्या ज़िन्दगी दो पल के लिए भी हमसफ़र नहीं बन सकती थी । पर मेधा धिक्कारती है मन को और शब्द प्रहार करती है कि क्या तुम कभी ज़िन्दगी के साथ चल पाए ! वाकई , क्या मैंने ज़िन्दगी के सूनेपन में रस घोलने का प्रयास किया ! क्या रस- वितान ज़िन्दगी के ठूंठ को संज्ञा के रस से सींचकर हरीतिमा विस्तृत करने का प्रयास किया ! नहीं किया ! तो फिर, ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ! शिकायत तो स्वयं से होनी चाहिए । पर शायद उदासीनता की चादर इतनी गहन हो चुकी है कि खुद से शिकायत करने का भी अवसर नहीं मिलता ।
पतझड़ के मौसम में उन्ही सूनी राहों पर चलते चलते जब उदासीनता की चादर में कुछ सिलवटें आ जाती हैं और इसके महीन ताने - बाने से थोड़ी - सी हवा , थोड़ी सी रोशनी छन छन के शरीर को छूती है , तो अनायास ही मानस पटल पर कुछ खोई कल्पनाएँ जीवंत हो जाती हैं ।
लगता है मानो सावन की संध्या में, जब बयार हो कुछ गीली, कुछ बौराई सी ; जब सुन्दर - सी , नैसर्गिक - सी शांति हो चहुँ ओर और बीच बीच में कहीं दूर से कोई कोयल प्रयास करती हो इस नैसर्गिक शांति को भंग करने का पर जुड़ जाते हों सुर के तार उस कूक से ; जब नीचे बहती हो पतित - पाविनी , शस्य - श्यामला गंगा जिसकी सवारी करते हों फूल , कंकण , सिन्दूर , नारियल, दुर्गा और छोटे बच्चे और मैं खड़ा हूँ हावड़ा के पुल पर - निर्निमेष , आलोकित , एकांत !
सोचते - सोचते अचानक ही यह कल्पना और ऐसी कई कल्पनाएँ कब शून्य में विलीन हो जाती हैं , पता ही नहीं चलता । रह जाता है तो बस शुष्क - सा यथार्थ , शुष्क - सी ज़िन्दगी ।


                                                                                                               .... to be contd.