Saturday 19 April 2014

Desires and Dreams of a Siesta ... 

Reminiscences from my diary 


February 26, 2014
Wednesday
2 AM Bangalore


आज मेरी नींद ने  …
चुपचाप  …
आसमान की काली चादर से ,
एक तारे को तोड़ा -
-और ,
उसके टूटने से पैदा होती -
- किसी ख्वाहिश को -
- मेरे सपने में पिरो दिया !
बौरा गयी थी, शायद  …
किसी की मन्नत में ,
अपना अक्स तलाश रही थी !

एक ज़माना तब था -
- जब सपने -
- किसी भटकते पथिक से -
- रास्ता ढूँढा करते थे -
- नींद की इस गहरी दरिया में  …
और ये दरिया -
- डूबी रहती थी -
- अपने ही सलिल में !

एक ज़माना अब है -
- जब इस दरिया का सलिल -
सूख गया है  …
तो खोजा  करती है यह -
- किसी सपने की थाह !

और, ऐसे ही -
- एक एक दिन बीत जाता है  …
रोज़ रात होती है -

और रोज़ , मेरी नींद -
टकटकी लगाये -
आसमान में  …
किसी तारे के टूटने की -
- बाट  जोहती रहती है !!





Thursday 17 April 2014

                    Water and Ruins ...

Reminiscences from my diary




January 26, 2014
Sunday, 8:40 A.M.
HAMPI


हम्पी से कुछ दूरी पर है यह जगह। कितनी दूर  … नहीं पता ! कौन सी जगह है , क्या नाम है  … नहीं पता ! जहां बैठा हूँ , वहां मुंडेर से एक हाथ नीचे झील है  … 78 फ़ीट गहरी झील ! अजीब सी शांति है यहाँ ! एक तरफ झील है , और बाकी दिशाओं में पथरीले पहाड़ , चट्टानें  … घाटी है कोई !

नज़र दौड़ाई तो लोगों को देखा  … हँसते हुए , गाते हुए , पीते हुए , शोर करते हुए  … खुश होते हुए ! और फिर खुद को देखा  … वही मैं और वही एक अजीब- सी खुशनुमा उदासी ! सबके आस-पास होते हुए भी एक अजीब-सा अकेलापन ! और जब ये ख्याल ज़हन में ज्यादा आने लगा तो पाया कि अरे ! यह उदासी, यह अकेलापन अजीब से कहाँ रह गए हैं  … हमजोली बन गए हैं , हमराही बन गए हैं ! पहले तो बस डायरी साथ रहती थी पर अब  … !!

कल भी दो बार आया था यहाँ , इस झील के किनारे ! दिन में तो काफी गर्मी थी पर रात में कुछ अच्छा सा लगा यहाँ बैठ के ! अजीब-सा अच्छा ! ऊपर तारों से भरा आसमान था , जहाँ एक टूटता तआरा भी नज़र में कैद हो गया ! नीचे सलिल , बस सलिल, दूर दूर तक फैला सलिल , अनगिनत लहरों से अलंकृत सलिल , तारों के अक्स में डूबा सलिल , शांत - विकराल सलिल ! छूने की तमन्ना थी मन में , पर फिर लगा, जब बाकी तमन्नायें दम तोड़ चुकी हैं , तो फिर एक तमन्ना और सही !!

जिस गोलाई में झील ढाली गयी है , याद आ गया सलिल के साथ , सलिल के किनारे बितायी गयी अमेरिका की वह धुंधली शाम ! चार साल हो जायेंगे इस जून , पर लगता है कि आज भी वह पल यहीं- कहीं है  … पास  … बहुत पास  … इतना पास कि हाथ बढ़ाऊं तो छू लूँ ! मरीचिकाओं से भरा हुआ यह मानस कब मानेगा , पता नहीं !

चाह है कि ज़रा सा आगे बढूँ और समा जाऊं इस सलिल में ! गलत ख्याल है - जानता हूँ, और मानता भी हूँ  … पर फिर भी डूबना चाहता हूँ ! क्या पता , मन अनंत तक के लिए शांत हो जाए  … तृप्त हो जाये !

कभी लगता है कि  शायद कोई मनोवैज्ञानिक परेशानी है मुझे ! मैं ऐसा भी तो नहीं था ; सोचता था , पर हमेशा ही सब कुछ अलग अलग नहीं लगता था ! पर अब लगता है कि मैं शायद यहाँ का हूँ ही नहीं ; ये सब मेरे लिए नहीं है ! खोना है  … कहीं दूर खोना है - कैसे , पता नहीं ! माध्यम कोई भी हो , कुछ भी ! इस झील के सलिल में भी शायद कहीं दूर गुम हो जाने का माध्यम ढूंढ रहा है मन !

अक्सर सोचता हूँ कि कहीं अलिफ शफाक ने '40 रूल्स ऑफ़ लव' में जिस 'void' की बात की है , कहीं वो मेरे ही लिए तो नहीं था ! शायद उससे अच्छा विश्लेषण मैं अपनी मनोस्थिति के लिए न ही लिख सकता हूँ , न ही पा सकता हूँ ! अजीब है सब, अलग अलग सा ! कुछ ऐसा , जिसे लिखा नहीं जा सकता ! लोग बोलते हैं , कहते कहते कुछ कुछ कह जाते हैं - कुछ फर्क ही नहीं पड़ता ! कई बार लगता है, सच में 'स्पॉइलर' सा ही तो हूँ !  सोचता हूँ, अब से कहीं जाऊंगा, तो अकेले ही जाया करूँगा - कम से कम  किसी और को निराश करने का मौका तो नहीं मिल पायेगा !

हल्की - हल्की धूप है ; झील की तरफ देखा तो सलिल पर अपनी परछाई दिखाई दी - आँख के कोने में एक बूँद आकर ठहर गयी और अधरों पर  … न हंसी , न शिकायत ! बहते सलिल पर स्थिर परछाई - अजीब है ! मुद्दत बाद देखा ऐसा ! वरना अपने अस्तित्व को नष्ट होते देखा है सलिल के अस्तित्व में !

प्रकृति भी मौके ढूंढती रहती है - कभी हंसाने के, कभी रुलाने के ! कहते हैं - हर आत्मा में ईश्वर वास करता है  … यहाँ तो शायद मेरा ईश्वर किसी कोपभवन में बैठा है - कुछ कहता ही नहीं ! समय के साथ साथ 'प्लास्टिक स्माइल' का 'कांसेप्ट ' भी फीका पड़ता जा रहा है! समय  … लगता है मानो किसी छूटती रेलगाड़ी की खिड़की से हाथ हिलाता कह रहा हो - तू पीछे छूट गया  … तू पीछे छूट गया ! !














Sunday 13 April 2014

... Only If You Could Come!!




Reminiscences from my diary
January 21, 2012 Friday, 11 p.m.
750, Balcony, 7th floor, IISc
Bangalore


आँखों में बसी कुछ गीली तरंगे,
हृदय में वही प्रणय- राग !
पथ में बिछ जाती हर उमंग ,
आ जाते जो तुम एक बार !

गूँज उठती कान्हा की बंसी ,
और मंदिर के शंखनाद !
मन भी गाता कोई मधुर गीत,
आ जाते जो तुम एक बार !

तुम कुसुमाकर , मैं सुमन ,
छा जाता मकरंद औ' पराग !
खिल जाती गली -गली कली -कली ,
आ जाते जो तुम एक बार !

हर स्मृति बौरा जाती ,
अश्रु पा जाते नयनजाल !
मन का मानस भी खिल जाता ,
आ जाते जो तुम एक बार !

किरणें भी फिर से छन जातीं ,
मेघों में बजती सलिल- ताल !
नभ का मस्तक भी झुक जाता ,
आ जाते जो तुम एक बार !

जग जाती फिर से हर ख्वाहिश ,
और ख्वाबों का घना जाल !
हर मिथ्या बनती यथार्थ,
आ जाते जो तुम एक बार !


(कुछ बरसों पहले महादेवी जी द्वारा रचित एक कविता पढ़ी थी जिसका शीर्षक भी कुछ ऐसा ही था ! यह कविता उन्हें और उनकी कविता को समर्पित !)