Water and Ruins ...
Reminiscences from my diary
January 26, 2014
Sunday, 8:40 A.M.
HAMPI
हम्पी से कुछ दूरी पर है यह जगह। कितनी दूर … नहीं पता ! कौन सी जगह है , क्या नाम है … नहीं पता ! जहां बैठा हूँ , वहां मुंडेर से एक हाथ नीचे झील है … 78 फ़ीट गहरी झील ! अजीब सी शांति है यहाँ ! एक तरफ झील है , और बाकी दिशाओं में पथरीले पहाड़ , चट्टानें … घाटी है कोई !
नज़र दौड़ाई तो लोगों को देखा … हँसते हुए , गाते हुए , पीते हुए , शोर करते हुए … खुश होते हुए ! और फिर खुद को देखा … वही मैं और वही एक अजीब- सी खुशनुमा उदासी ! सबके आस-पास होते हुए भी एक अजीब-सा अकेलापन ! और जब ये ख्याल ज़हन में ज्यादा आने लगा तो पाया कि अरे ! यह उदासी, यह अकेलापन अजीब से कहाँ रह गए हैं … हमजोली बन गए हैं , हमराही बन गए हैं ! पहले तो बस डायरी साथ रहती थी पर अब … !!
कल भी दो बार आया था यहाँ , इस झील के किनारे ! दिन में तो काफी गर्मी थी पर रात में कुछ अच्छा सा लगा यहाँ बैठ के ! अजीब-सा अच्छा ! ऊपर तारों से भरा आसमान था , जहाँ एक टूटता तआरा भी नज़र में कैद हो गया ! नीचे सलिल , बस सलिल, दूर दूर तक फैला सलिल , अनगिनत लहरों से अलंकृत सलिल , तारों के अक्स में डूबा सलिल , शांत - विकराल सलिल ! छूने की तमन्ना थी मन में , पर फिर लगा, जब बाकी तमन्नायें दम तोड़ चुकी हैं , तो फिर एक तमन्ना और सही !!
जिस गोलाई में झील ढाली गयी है , याद आ गया सलिल के साथ , सलिल के किनारे बितायी गयी अमेरिका की वह धुंधली शाम ! चार साल हो जायेंगे इस जून , पर लगता है कि आज भी वह पल यहीं- कहीं है … पास … बहुत पास … इतना पास कि हाथ बढ़ाऊं तो छू लूँ ! मरीचिकाओं से भरा हुआ यह मानस कब मानेगा , पता नहीं !
चाह है कि ज़रा सा आगे बढूँ और समा जाऊं इस सलिल में ! गलत ख्याल है - जानता हूँ, और मानता भी हूँ … पर फिर भी डूबना चाहता हूँ ! क्या पता , मन अनंत तक के लिए शांत हो जाए … तृप्त हो जाये !
कभी लगता है कि शायद कोई मनोवैज्ञानिक परेशानी है मुझे ! मैं ऐसा भी तो नहीं था ; सोचता था , पर हमेशा ही सब कुछ अलग अलग नहीं लगता था ! पर अब लगता है कि मैं शायद यहाँ का हूँ ही नहीं ; ये सब मेरे लिए नहीं है ! खोना है … कहीं दूर खोना है - कैसे , पता नहीं ! माध्यम कोई भी हो , कुछ भी ! इस झील के सलिल में भी शायद कहीं दूर गुम हो जाने का माध्यम ढूंढ रहा है मन !
अक्सर सोचता हूँ कि कहीं अलिफ शफाक ने '40 रूल्स ऑफ़ लव' में जिस 'void' की बात की है , कहीं वो मेरे ही लिए तो नहीं था ! शायद उससे अच्छा विश्लेषण मैं अपनी मनोस्थिति के लिए न ही लिख सकता हूँ , न ही पा सकता हूँ ! अजीब है सब, अलग अलग सा ! कुछ ऐसा , जिसे लिखा नहीं जा सकता ! लोग बोलते हैं , कहते कहते कुछ कुछ कह जाते हैं - कुछ फर्क ही नहीं पड़ता ! कई बार लगता है, सच में 'स्पॉइलर' सा ही तो हूँ ! सोचता हूँ, अब से कहीं जाऊंगा, तो अकेले ही जाया करूँगा - कम से कम किसी और को निराश करने का मौका तो नहीं मिल पायेगा !
हल्की - हल्की धूप है ; झील की तरफ देखा तो सलिल पर अपनी परछाई दिखाई दी - आँख के कोने में एक बूँद आकर ठहर गयी और अधरों पर … न हंसी , न शिकायत ! बहते सलिल पर स्थिर परछाई - अजीब है ! मुद्दत बाद देखा ऐसा ! वरना अपने अस्तित्व को नष्ट होते देखा है सलिल के अस्तित्व में !
प्रकृति भी मौके ढूंढती रहती है - कभी हंसाने के, कभी रुलाने के ! कहते हैं - हर आत्मा में ईश्वर वास करता है … यहाँ तो शायद मेरा ईश्वर किसी कोपभवन में बैठा है - कुछ कहता ही नहीं ! समय के साथ साथ 'प्लास्टिक स्माइल' का 'कांसेप्ट ' भी फीका पड़ता जा रहा है! समय … लगता है मानो किसी छूटती रेलगाड़ी की खिड़की से हाथ हिलाता कह रहा हो - तू पीछे छूट गया … तू पीछे छूट गया ! !