Tuesday 23 June 2015

... December Divinity !


Reminiscences from my diary

December 19, 2010
8 AM
Manikaran, Kullu


बरबस ही नज़र पड़ गई उस पहाड़ की फुनगी पर ! कुछ  … न, पूरी धुंधली - सी थी जब सो कर उठा।  और अब, चमक रही थी उषा की उस लालिमा में।  ठीक वैसे ही , जैसे कल गोधूलि की कालिमा में दीप्तिमान हो उठी थी कुछ क्षणों के लिए!  धुंआ उठ रहा था। कंपकंपाती, चिलचिलाती सर्दी में मझधार में अचानक मिले किनारे - सा प्रतीत हो रहा था वह धुंआ -  दिशाहीन-सा , संज्ञाहीन - सा ! बीच - बीच में छोटी बड़ी चट्टानें , जिन पर हर समय वह धुंआ अपना आधिपत्य स्थापित करने का पूर्णापूर्ण प्रयास कर रहा था , अपने अस्तित्व का आभास करा  रहीं थीं।  यूँ तो उनके बिना शायद इस स्थान की कल्पना भी नहीं की जा सकती - उस नील सलिल को ओजस्वी बनाने में , गतिमान बनाने में , या फिर यूँ कहूँ कि उसे एक नया रंग, एक नई सत्ता प्रदान करने में इन चट्टानों का कितना बड़ा हाथ है - ये शायद वह पानी भी नहीं जानता , जो कितनी क्रूरता से उन पर समय के हर पल प्रहार करता रहता है।  कहीं कहीं नीला, तो कहीं कहीं हरा , कभी तुषार से भी अधिक शीतल , तो कभी लावे - सा धहकता  … शायद इसी को शस्य - शयामला कहते हैं जहां हर वर्ण का , हर  गुण  का पारस्परिक तारतम्य देखने को मिलता है।

व्योम की समष्टि पर विचार कौंधा ही था , तभी निरंतर गिरती पत्तियों को देखकर मन में एक प्रश्न आया  - क्या आजकल पतझड़ है ? शायद नहीं - ये तो हेमंत है - निदाघ का क्रूर शत्रु ! तो फिर, उस तिब्बती शैली से बने घर की किसी ओट से निकलते पेड़ की उस शाखा को क्या कोई हिला रहा है ? दिख तो कोई नहीं रहा है ! न, शायद वही बात है , जो मन पहले ही कह रहा था -  शायद सूखी ठण्ड की बेरूखी से , या फिर, हिमवर्षा के प्रहार से पहले ही किंकर्तव्यविमूढ़ - सी निस्पंद होती पत्तियाँ अपनी शाखा , अपनी वल्लरी से सदा - सदा के लिए विलग होती हुई उस कल - कल करते जल से कुछ चेतना पाने की इच्छा से , या फिर, भास्कर की किसी रश्मि को छूने की आस से उसमें विलीन होने को तत्पर हैं !

कितनी अजीब बात है ! जिस सलिल की शीतलता सख़्त से सख़्त चट्टान को भी पिघला सकती हैं , क्या वह सलिल इन कुछ पीली, कुछ हरी पत्तियों को आश्रय दे सकता है ? आश्रय नहीं  … तो काम - से - काम आस ही सही ! दूर उस बहते चश्मे के ऊपर दो सिरों को जोड़ती तार पर एक चिड़ा - एक चिड़िया का जोड़ा दिखाई दिया और वह भी वैसे ही काँप  रहा था जैसे लिखते हुए मेरे हाथ , या फिर उससे भी ज़्यादा ! हर मौसम में - सर्दी हो या पतझड़ ,  प्रेम अपना आश्रय ढूंढ ही लेता है ! यहाँ आते हुए सोचा था कि नागार्जुन के वे चकवा - चकवी शायद दिख जाएँ  - चकवा - चकवी तो नहीं , चिड़ा - चिड़िया ही सही !

महामेघ  को  झंझानिल से गरज - गरज भिड़ते देखना चाहा था मैंने ! पर यहाँ तो हर मोड़ पर ,  पानी और प्रस्तर का ही  संग्राम देखा - एक ऐसा संग्राम जहाँ दोनों ही विजयी थे - चट्टानें अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थीं और पानी था कि  अपना रास्ता बनाता जा रहा था !

विधाता की सर्वाधिक सुन्दर कृति है प्रकृति और शायद संसार के समस्त सुन्दर प्राकृतिक नज़ारों के दर्शन यहाँ किये जा सकते हैं ! चारों ओर गूंजती कल - कल की वह ध्वनि लयात्मकता का एक अनुपम दृष्टांत प्रस्तुत कर रही थी , और, उस पहाड़ की फुनगी पर पड़ती कनक - सी वह रश्मि इस अप्रतिम पल की इकाई में असंख्य शून्य लगा रही थी !