Sunday 9 August 2015


  My wet encounters !


Reminiscences from my diary

Aug 9, 2015 Sunday
6 pm
Murugeshpalya, Bangalore


जब भी कभी , तू -
उन्माद -सा -
उन्माद से -
बरसता है -
तो  मेरा समय , मानो -
रुक सा जाता है !
लगता है , इस एक पल -
कोई नहीं है आस - पास -
बस तू है  …
और, तुझे निहारता -
मैं !


लगता है , जैसे -
सब कुछ भूल कर -
या भुलाकर -
तू -
सिर्फ़ मेरे लिए , मुझसे मिलने आया है !

जब तू मिट्टी छूता है -
तो मिट्टी भी जैसे -
खिलखिला जाती है -
और, तब लगता है , मानो -
उसकी बौराई खुशबू -
सिर्फ़ मेरे लिए है !


जब तू टीन की छत पर -
छम से गिरता है -
तो वह शोर, मेरे कानों में -
कुछ ऐसे घुलता है , मानो -
सरस्वती ने -
वीणा छेड़ दी हो !

जब धीरे - धीरे कांच पर -
तू सरकता है -
तो लगता है , मानो -
मुझे ढूंढ रहा हो  …
और, तब मैं भी -
कुछ बौराया -
कुछ इतराया -सा -
तेरे साथ -
लुका - छुपी खेलने लग जाता हूँ !

फिर -
कब तेरे और  मेरे बीच  का समय -
पहर बन -
तेरी ही तरह -
सलिल - सा बह जाता है -
न तुझे पता चलता है -
और , न ही मैं जान पाता हूँ !
तब, अचानक ही -
सिहर सा जाता हूँ मैं -
और सिहरकर-
जब नज़र दौड़ाता हूँ -
तो सब नज़र आते हैं -
नहीं दिखाई देता तो बस -
तू  .... !