Saturday 17 December 2016


Thou! Thou! Thou!


Reminiscences from my diary

Dec 17, '16
Murugeshpalya, Bangalore


दाएँ हाथ की उँगलियों से जब -
- अपने बाएँ हाथ की नब्ज़ टटोलता हूँ, तो -
उसकी हर कम्पन में मुझे -
- तू साँस लेता दिखता है -
मानो -
उस नब्ज़ में गुज़रता लहू -
तू ही तो है !

जब ऐसे ही कभी -
कोई पलक -
आँखों के आस पास -
या गाल पर कहीं -
ठहर सी जाती है -
तो उस ठहरी ख्वाहिश में ठहरा -
तू ही तो है !

बैठे - बैठे, यूँ ही कभी -
- जब बिन सावन का सलिल -
- मेरे नयनों से बरसने लगता है -
और, सरकते - सरकते उसकी पहली बूँद -
- जब मेरे अधरों को छूती है -
तो उस पहले स्पर्श में स्पर्श होता -
तू ही तो है !

दिन भर की थकान, जब मेरे शरीर को -
निढाल कर देती है -
और बिस्तर पर लेटे-लेटे मेरी उँगलियाँ यूँ ही -
सिलवटों से गुफ़्तगू करने लगती हैं -
तब एक झोंका कहीं से -
एक झपकी ले आता है।
उस झपकी में झपकी लेता -
तू ही तो है !

कभी कोई पुराने लम्हों का एक कतरा -
राख - सा उड़ता हुआ -
तेरे पास आये, तो बताना -
क्या तूने भी कभी मुझे -
- ऐसे ही जिया है ?














Saturday 10 December 2016

ALMORA


Reminiscences from my diary

Dec 3, 2016
09:20 PM
1/Dhamas, Almora


बीते बारह वर्षों से 'अल्मोड़ा' मेरे लिए मात्र एक बिंदु रहा है भारत के नक़्शे पर ! आज अवसर मिला है इस देवभूमि पर पाँव रखने का।  जब-जब अल्मोड़ा ने मेरे मानस - पटल पर दस्तक दी है, तब तब समय का तेज़ घूमता चक्र कुछ क्षणों के लिए उल्टी दिशा में चलने लगता है और मुझे कक्षा दस में ले जाता है जब शिवानी ने कृष्णकली का परिचय मुझसे कराया था।  अल्मोड़ा में ही जन्मी थी कृष्णकली - चंचलता और गाम्भीर्य का अप्रतिम तारतम्य रखती वह श्यामवर्णा 'कली' जो शायद इन्ही पहाड़ियों में पली - बड़ी थी, जिसने इसी ठंडी हवा में साँस लेना सीखा था, जिसने नीचे बहती कोसी से अपने आंसू साझे थे।  आज उसी कोसी, उसी ठंडी हवा, उन्ही पहाड़ियों में बैठा यह सब लिख पा रहा हूँ। कल यहाँ पहुँचते -  पहुँचते बेचारी शाम के कई पहर बीत चुके थे और भास्कर बाबू राह तकते - तकते सर्दी की ठिठुरती रात से बचने के लिए जल्दी ही अपने घर लौट चुके थे । एक तो सर्दी, ऊपर से दिसम्बर ! मौसमों की बिरादरी में इससे अच्छा युग्म क्या ही हो सकता है ! कुछ अलग - सा ... असल में कुछ नहीं, बहुत अलग - सा लगाव रहा है सर्दियों से मुझे -  बचपन से, हमेशा से ! एक  अलग - सी महक घुली हुई पाता हूँ दिसम्बर की हवा में।  लगता है मानो मेरी ही रूह का कोई कायनाती हिस्सा मुझसे मिलने आता है इस महीने।  और अब जबकि मैं यहाँ हूँ, अल्मोड़ा में, तो सोने पे सुहागा वाली बात हो गयी है। पहाड़ों की ठिठुरन की बात ही कुछ और है।

इस एक पल जब मैं कांच की दीवार के उस पार देख रहा हूँ तो दूर - दूर तक एक सन्नाटा पसरा हुआ है।  कुछ रोशनियों के बिंदु अल्मोड़ा शहर के हैं और कुछ शायद रानीखेत के।  सच ! ऐसा नयनाभिराम दृश्य विरले ही देखने को मिलता है।  यूँ तो सन्नाटे और शांति को एक नहीं मानता मैं।  'सन्नाटा' शब्द मेरे लिए भयावहता का शब्द-चिह्न है और 'शांति' मेरे लिए सुकून का पर्याय है पर इस एक क्षण जब मैं घाटियों में बिखरी इन रोशनियों को टिमटिमाते देख रहा हूँ तो लग रहा है मानो प्रकृति और भाषा ने आपस में साझेदारी से इन दो शब्दों को एक दूसरे का पर्यायवाची बना दिया है। शांति वाली भयावहता ! इन घाटियों में न जाने कितने ही राज़, कितनी ही चीत्कारें, कितनी ही कहानियाँ दबी होंगी, उगी होंगी - पर फिर भी कितनी मौन हैं ये घाटियाँ, ये पहाड़, ये रोशनियाँ ! इस शांति, इस सुकून, इस डर, इस भयावहता, इस सन्नाटे में न जाने क्यों साँस लेने का मन करता है; यहाँ की सर्द बयार में घुली गंध को अपनी साँस में मिलाने का मन करता है।  

कल से अब तक जितने भी रास्ते नापे हैं, जितनी भी पगडंडियाँ लाँघी हैं, जितने भी मोड़ आये हैं - अपनी रगों में दौड़ते खून में कभी शिवानी तो कभी पन्त के किरदारों को घुला हुआ पाया है।  किरदारों को ही क्यों, मैंने शायद साक्षात शिवानी को, सुमित्रानंदन को, नागार्जुन को अपने सामने महसूस किया है।  यहीं कहीं किसी चीड़ के नीचे शिवानी ने 'कली' को गढ़ा था और यहीं किसी मोड़ पर कली अपने प्रभाकर से टकराई थी और यहीं कोसी के सलिल ने शायद कली को मुक्ति दी थी।  

सोचता हूँ, क्यों इतना समय लगा दिया मैंने यहाँ पाँव रखने में ! क्यों इतना समय लगा दिया यहाँ की नीरवता को पीने में, निर्जनता को पीने में ! क्यों इतना समय लगा दिया दूर स्वर्णाभ शिखरों के त्रिशूल को छूती मीठी गुनगुनी धूप चखने में।  यहाँ कहीं बैजनाथ हैं तो कहीं चिट्ठियों में उतरी ख्वाहिशों को पूरा करने वाले गोलू तो कहीं जागेश्वर ! शायद शिवानी की तरह शिवानी के शिव की भी प्रिय भूमि रही होगी यह ! काश कुछ यूँ सा हो कि मेरी रूह का वह कायनाती हिस्सा जो मुझसे दिसम्बर में मिलने आता है, मुझे हमेशा के लिए अल्मोड़ा की रूह में बसा जाए।  फिर तो न कभी मैं शिव से अलग हो पाऊंगा, न शिवानी से और न ही शिवानी की कृष्णकली से !







Tuesday 1 November 2016

Wish I were your craving too!



Reminiscences from my diary

Oct 31, 2016, Monday
03:00 pm
GS, CD, Bangalore



ज़रूरतों और आदतों की भी -
एक अपनी ही खींचा - तानी चलती है -
एक अजीबोगरीब - सा खेल -
- जहाँ मैंने, अक्सर ,
ज़रूरतों को जीतते, और -
- आदतों को हारते हुए पाया है !

अब देखो न  ...
अगर तुम्हारी और अपनी ही बात करूँ -
तो जितना भी वक़्त -
- हम साथ रहे  ...
... मैं शायद तुम्हारी ज़रुरत बना रहा !
काश ! तुम ये जान पाते कि -
- हर उस पल -
- जब तुम बहुत आसानी से -
मुझे अपनी ज़रूरतों के हिसाब से -
ढाल रहे थे  ..
.. तब, तुम खुद -
- मेरी आदतों में ढल रहे थे !

... और फिर एक दिन -
वक़्त बदल गया -
हालात बदल गए -
तुम भी बदल गए -
तुम्हारी ज़रूरतें पूरी हुईं !
नई ज़रूरतें आईं, और तुम -
- नईं ज़रूरतें को मुकम्मल करने वाले -
- किसी 'काबिल' की तलाश में -
- आगे बढ़ चले !
पीछे रह गया मैं -
- और मेरी आदतों में रजे तुम !

तुम मुझे जीत गए थे, और मैं -
- हमेशा के लिए तुम्हे हार चुका था !










Sunday 16 October 2016

...Coffee, Books and Stories!


Reminiscences from my diary

Oct 15, '16 Saturday
11:30 AM
Atta Galatta, Bangalore

यहाँ -
कुछ किताबें !
असल में, कुछ नहीं -
बहुत किताबें हैं !
आसपास कुछ लोग बैठे हैं !
लेखक लगते हैं -
दार्शनिक या विचारक से -
पर आम से !

एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है !
खौफ़ वाला सन्नाटा नहीं -
सुकून वाला सन्नाटा !
ये लेखक अपने अंदर डूबे से -
मालूम पड़ते हैं !
एक अलग ही दुनिया में खोये लगते हैं -
और उस दुनिया से इस दुनिया का रास्ता -
स्याही से माप रहे हैं !

सोच रहा हूँ -
इस एक कमरे की हवा में -
कितनी ही कहानियाँ बह रही हैं !
महज़ किताबों में नहीं, बल्कि -
इन लोगों में !
कभी अपने में सिमटी और कभी -
इधर उधर तांक - झांक करती -
इनकी आँखों में !
सैकड़ों बातों से -
चिंताओं से घिरे -
इनके मस्तिष्क में !
न जाने कितनी ही वेदनाओं से जूझते -
स्मृतियों को समेटे -
इनके हृदय में !

कहानियाँ  ही कहानियाँ -
कहानियाँ  में कहानियाँ -
छोटी - छोटी कहानियाँ -
कभी न ख़त्म होने वाली कहानियाँ -
आम कहानियाँ -
ख़ास कहानियाँ-
उफ्फ !
जितना सोचता हूँ, उतना पाता हूँ -
एक व्यक्ति की सत्ता -
उसका अस्तित्व -
कितना विशाल, कितना विस्तृत है !
ऐसा लगता है, मानो -
यहाँ बैठा हर व्यक्ति-
हर लेखक -
अपने आप में आसमान है -
या उससे भी बढ़कर -
एक ब्रह्माण्ड -
जिसमें डूबे हुए हैं -
कितने ही सूरज -
कितने ही चाँद -
कितनी ही आकाश - गंगाएँ !

पर एक बात तो माननी होगी -
इस एक पल -
जब इनकी रूहें -
अपने ही अंदर कुछ टटोल -सा रही हैं -
तो एक अलग ही कांति,
एक अलग ही शांति,
एक अलग ही मुस्कान -सी -
मालूम पड़ती है -
इनके होठों पर !

पर, अब कुछ ही देर में -
ये अनजान लोग -
शायद फिर से अनजान हो जायेंगे !
बिखर जायेंगे!
और इनमे सिमटी कहानियाँ -
कुछ और सिमट जाएँगी -
कुछ नए रूख अपनाएंगी !

सोचता हूँ, काश!
क्या ऐसा कायनाती सुकून -
- कुछ देर और नहीं ठहर सकता था !

(written during an experiential poetry event at a coffee house/book store)



  

Thursday 6 October 2016


...worshiped!


Reminiscences from my diary

Oct 6, 2016 Thursday
10:00 am, GS, CD, Bangalore


न अधरों को सोम की तृष्णा,
न नयनों में परिश्रांत।
हर व्याधि को मुक्ति मिल जाए,
हर पीड़ा पाए प्रशांत।
'गर तू मेरा शिवालय बन जाए -
मिट जाएँ मेरे सभी क्लान्त।।

पद्माक्षी भी जल से भर जाए,
उग्र सलिल हो जाए शांत।
तेजोमय तेरा खंड खंड,
नभ से भी विस्तृत तेरा प्रांत।
'गर तू मेरा शिवालय बन जाए -
मिट जाएँ मेरे सभी क्लान्त।।

प्रेम सिंधु का तुझसे आदि,
तू गोधूलि, तू ही निशांत।
हर रूमी का तू ही शम्स,
हर मीरा का तू ही कान्त।
'गर तू मेरा शिवालय बन जाए -
मिट जाएँ मेरे सभी क्लान्त।।













Sunday 2 October 2016

The balloon - seller


Reminiscences from my diary

July 22, 2016
Wednesday
Chandigarh Airport


रिक्शा से स्टेशन जा रहा था  ...
भोर अभी पूरी तरह से -
- खिली नहीं थी, शायद,
या फिर -
खिल गयी थी और खिलकर भी -
- घने घने गहराए बादलों से -
- हार मान गई थी !

मन में , मस्तिष्क में -
कुछ गणित सा ,
कुछ जोड़ - घटा -
कुछ हिसाब - किताब चल रहा था !

यूँ तो तनख्वाह बहुत ज़्यादा कम नहीं -
पर फिर भी -
कितने खर्च -
ये हिसाब , वो हिसाब -
कैसे बचाऊँ -
कैसे बढ़ाऊँ -
भविष्य मुँह बाए खड़ा है -
और समय -
न जाने कब से पंख लगाकर -
- उड़ रहा है !
उड़ा ही जा रहा है !

निवेश भी करना है -
कहाँ करूँ -
कैसे करूँ -
कितना करूँ !
करोड़ों सवाल !
बिन जवाब के सवाल !
सवाल ही सवाल !

तभी, रिक्शा - वाले ने -
बचाते - बचाते भी -
एक गड्ढे से -
क्रूर साक्षात्कार करा ही दिया !

ध्यान टूटा !
सवाल इधर - उधर बिखरे !
भविष्य भी भविष्य में लीन हुआ -
-और नज़र पड़ गई दाईं ओर -
- बंद पड़ी उस लकड़ी की दुकान की -
- मुंडेर पर बैठे -
उस गुब्बारे वाले पर !

कितनी तन्मयता से गुब्बारे फुला रहा था !
एक, फिर दो, फिर तीन  ...
कितनी फुर्ती !
फुला - फुलाकर अपनी लकड़ी पर टांग रहा था !
होठों पर मुस्कान - सी थी -
- और शायद कोई गीत !

एक ओर यह गुब्बारे वाला था -
जो शायद तीन वक़्त का खाना भी -
खा पाएगा या नहीं -
पता नहीं !
कितने गुब्बारे बिक पाएंगे आज -
पता नहीं !
कौन से नुक्कड़ पर ज़्यादा बच्चे मिलेंगे -
पता नहीं !
सवाल तो इसके ज़हन में भी होंगे  ...
कई होंगे -
शायद मेरे सवालों से कम -
या फिर ज़्यादा !
पर  ...
कितना अंतर था हमारे सवालों में -
सिर झुक गया मेरा -
और मेरे सवालों का भी !

और जवाब नहीं चाहियें अब ,
या यूँ कहूँ -
सवालों को मेरे , शायद ,
सभी जवाब मिल गए !

कुछ देर बाद गौर किया -
तो मैं -
मुस्कुरा रहा था, और -
बिसरा - सा कोई गीत -
गुनगुना रहा था !







Sunday 18 September 2016


... and then, I remember you, again!


Reminiscences from my diary

April 30, 2012
09:30 AM

In flight from Bangalore to Delhi



जब शहतूत की गीली डाली से,
हर फल पक - पक  गिर जाता है !
तब टीस मचल जाती मन में,
और फिर से तू याद आता है !




जब भोर की पहली रश्मि, मेरे, 
गालों को छू जाती है !
पीछे - पीछे बैरन हवा भी ,
मुझसे लड़ने आ जाती है !
पर तू नहीं आता , तेरा स्पर्श -
रह रह मुझको तड़पाता है !
खुल जाती अधमुंदी आँखें तब ,
और फिर से तू याद आता है !



सावन की पहली बारिश जब,
मिट्टी को महकाती है !
और पपीहे की पीहू भी -
कानों में घुल जाती है !
पर तेरी ख़ामोशी से -
- सावन सूना पड़ जाता है !
बूँदें आंसू बन जाती हैं -
और फिर से तू याद आता है !


गुलमोहर के फूलों से जब,
पग पग यूँ सज जाता है !
हर वल्लरी पाती आश्रय, और, 
हर विटप भी खिल जाता है !
तब तेरी मुस्कान मेरी इन -
- आँखों में लौट आती है !
स्मृतियाँ कुछ बौरा जातीं-
और फिर से तू याद आता है !



सर्दी की ठंडी रातों में जब,
छत पर तारे गिनता हूँ !
और मेघों की छाया में जब,
चन्दा से बातें करता हूँ !
पर क्यों तेरा साया, तेरा -
- चेहरा नहीं दिख पाता है !
छा जाता तब कोहरा घन घन -
और फिर से तू याद आता है !











Monday 12 September 2016

Listen! Go away, please!



Reminiscences from my diary

Sep 9, 16 Friday
4 pm, GS, CD, Bangalore

सुनो,
ये जो तुम , गाहे - बगाहे -
- मुझसे बात करने की कोशिश करते हो -
- मत किया करो !

तुम्हें , शायद, कभी कभी -
यह ख्याल गहरा जाता है कि -
- तुम्हारे दूर जाने से -
मुँह मोड़ने से -
सामने होकर भी साथ न होने से -
बहुत अपने से बहुत पराया कर देने से -
मैं -
हैरान, परेशान हूँ -
दुःखी हूँ -
उदास हूँ   ... !
अगर ऐसा है, तो मत सोचो ये सब !

तुम हमेशा से ही -
'प्रगतिशील' रहे हो !
आगे बढ़ना -
और आगे बढ़कर, गुज़रे कल को -
चिता देना -
तुम्हारी आदत रहा है शायद !
आखिर तुमने भी सलिल - सा ही -
- स्वाभाव पाया है !

और, जब से -
यह बात समझा हूँ ,
तब से -
तुमसे कोई शिकायत नहीं रही !
तुम्हारे वजूद का -
तुम्हारे होने या न होने का -
- अब मुझपर शायद कोई असर नहीं होता !

हाँ, इस दौरान -
- एक अच्छी बात हुई है -
- और वह ये कि -
मेरी खुद से पहचान कुछ और गहरी हो गयी है !

खैर  ...
रही बात, बीते दिनों की -
बीती बातों की -
तो सुनो !
वह इमारत भी गिर चुकी है !
और, आधी - पौनी यादों का खंडहर भी -
चरमरा रहा है !
कभी भी ढह जाएगा !

इसी लिए कहता हूँ -
सुनो!
तुम बस आगे बढ़ो !
और, ये जो मेरा बचा - कुचा अस्तित्व -
- तुम्हें , गाहे - बगाहे -
घेर लेता है -
इसे भी जला दो !
तुम्हें तुम्हारे राह तकता मैं -
- अब कभी नहीं मिलूंगा !

















Friday 2 September 2016

Gali Khatriyan, Abupura, Muzaffarnagar!


Reminiscences from my diary

Aug 2, 2016
Friday, 1:25 AM
IGI Airport, Delhi

Waiting for the flight to Bangalore...

मुज़फ्फरनगर की उस संकरी गली के अंत में बाहर से मामूली -से दिखते उस घर की दहलीज़ में घुसते ही लगता था मानो सैकड़ों वर्षों से पिंजरे में कैद किसी पंछी को अनायास ही अनंत व्योम मिल गया हो ! एक अलग महक , एक अलग एहसास, एक अलग ख़ुशी ! अक्सर अँधेरे में जीती उस दहलीज़ में रोशनी  के सैकड़ों बल्ब - से जल उठते थे हम बच्चों के शोर से, और माँ की आँखों की चमक  ... मैं शायद सब कुछ शब्दों में बयान कर हूँ पर उन दो आँखों की अप्रतिम चमक नहीं !

दहलीज़ पार करते ही खुला आँगन पलकें बिछाए हमारी राह तकता मिलता था।  खुला आँगन , खुले आँगन में पसरी धूप , एक कोने में ऐंठा - सा खड़ा हरे रंग का हैंडपंप, बाईं ओर से ऊपर जाने वाला चौड़ा जीना, उस चौड़े जीने की गहरी लाल सीढ़ियां और आँगन द्वार के ठीक सामने उस बड़े चौड़े जीने से सहमाया एक छोटा खड़ा जीना और सकुचाती - सी ही उस जीने की पलस्तर झाड़ती सीढ़ियाँ।  यूँ तो दोनों ही सीढ़ियाँ ऊपर ले जाती थीं पर फिर भी मुझे उन हल्की सफ़ेद चूना झाड़ती सीढ़ियों से कुछ अलग - सा लगाव था।

छन से आंगन पार सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर पहुँचकर नाना - नानी से लिपट जाता था।  "गॉड ब्लेस् यू माय सन !" की झड़ी लगा देते थे नाना।  माथे पर उनका चुम्बन और गालों पर उनकी हथेली की थपकियाँ - संसार के समस्त सुन्दर अनुभव इस स्पर्श में निहित थे।  नाना का हंसमुख , सदाबहार चेहरा देखकर अधरों पर स्वतः ही एक अलौकिक मुस्कान बिखर जाया करती थी।  नानी अक्सर रसोई से आती हुयी दिखती थी।  सादी साड़ी, माथे पर बड़ी - सी लाल बिंदी और खुली बाहें - मुस्काती , लजाती कृष्णवर्णा मेरी नानी नाना के पास आती और नाना के बाहुपाश से मुझे छीनकर अपने आलिंगन में भर लेती।

सीढ़ियां चढ़ने पर एक खुली छत मूक - बधिर पर प्रसन्न बालिका - सी पलकें बिछाए मिलती।  उस खुली छत के एक छोर पर रसोई थी जहाँ नानी का निर्विरोध शासन था।  रसोई के बराबर में एक वाशबेसिन था।  आज तक नहीं जान पाया कि वह वाशबेसिन कभी दीवार की तरह सफ़ेद था भी या नहीं।  मैंने तो उसे हमेशा ही पान की पीक से रंगा ही पाया था।

रसोई के ठीक सामने बड़ा कमरा था - बड़ा इसलिए क्योंकि दो कमरों में सब इसे बड़ा मानते थे।  यहाँ भी अपवाद था मैं शायद ! औरों को छोटा लगने वाला कमरा ही मुझे हमेशा बड़ा लगा।  उस छोटे- से बड़े कमरे में ही मैं हमेशा सोया हूँ शायद।  एक डबल - बेड , ब्लैक एंड वाइट छोटा - सा टी.वी. , लकड़ी का एक दीवान और दो कुर्सियां - बस इन्ही सब चीज़ों से सजा होता था वह कमरा।  एक और चीज़ है जो मेरे इस कमरे का अनभिज्ञ अंश रही हमेशा - चौलाई के लड्डू।  डबल - बेड के बगल वाली अलमारी के ऊपर वाले खाने में नानी हमेशा हम बच्चों के लिए चौलाई के लड्डू रखती थी  ...

आज ये सब चंद पन्नों में लिखते - लिखते हर एक पल के साथ , हर एक शब्द के साथ अपने ननिहाल की वही गंध कितनी समीप पा रहा हूँ मैं।  ऐसा लग रहा है वह छत , वह दालान , वह हैण्ड - पंप , छोटे - से बड़े कमरे की वह अलमारी , वहां बिखरे चौलाई के कुछ दाने, आँगन की हर ईंट मुझसे मिलने आई हो और शिकायत कर रही हो कि मुद्दत हो गयी है तुमसे मिले हुए , तुम्हे देखे हुए।  इस भागती - दौड़ती , भूलती - भुलाती ज़िन्दगी में अगर कुछ मिनट निकाल पाओ तो बंजर पड़ी , धूल चढ़ी उस दहलीज़ को एक बार फिर देख आना  ! शायद दम  तोड़ती लौ एक बार फिर भभक जाए !





Saturday 13 August 2016

That dying breath of mine!



Reminiscences from my diary

Aug 11, 2016
Thursday, 11:30 AM

In train from SRE to NDLS!


मेरी एक श्वास -
- न जाने , कब से -
बिलख रही है -
तड़प रही है !
बस एक ही ख्वाहिश रखती है -
तेरी !
पर क्या करे -
बदकिस्मत है !
तुझे देखने की चाह -
एक पहर से दूसरे पहर -
दूसरे से तीसरे -
और धीरे धीरे -
शून्य में खोती जा रही है !

हर एक श्वास के साथ -
मेरी वह बदकिस्मत श्वास -
मिन्नतें करती फिरती है -
हर पल से -
बीतते समय के हर अणु , हर इकाई से -
कि  बस ! एक बार और -
हाँ, बस एक बार -
तेरा दरस दिख जाए !
एक बार और -
तुझे जी भर के निहार पाए !
एक बार और -
तेरी श्वास में घुल जाए !
एक  बार और -
तेरे स्पर्श में सिमट जाए !

मोक्षदायिनी गंगा के -
- सलिल में,  सदा के लिए -
- तर जाएगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

हिमालय में बैठे -
- किसी अघोरी की चिलम में -
- आद्यांत रम जाएगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

गोविन्द को अलंकृत करते -
- वैकुण्ठ में किसी कमल - सी -
- चिरायु हो जाएंगी  ...
... यदि ऐसा हो पाया !

एक बार फिर जी उठेगी मेरी श्वास!
अमर हो जाएगी मेरी श्वास !
अमर हो जाएगी मेरी श्वास !





Saturday 23 July 2016

...Yet again! I cried, it rained!



Reminiscences from my diary

July 19, '16
11 am
GS, CD, Bangalore

जब भी कभी -
हृदय की आर्द्रता,
और उसकी तीव्रता -
यहाँ - वहाँ बिखरे हर गागर में -
सिमटकर भी नहीं सिमट पाती -
- और आँखों तक छलछला उठती है  ... 

तब  ... 
तब, नयन ही नहीं -
वरन्
मन, मस्तिष्क और ग्रीवा की -
- हर नाड़ी -
- चीत्कार कर उठती है 
और ध्वस्त होने की सीमा तक -
- आ पहुँचती है !

उस एक क्षण -
न जाने कितने ही युग -
जो रुग्ण - से -
जीर्ण - शीर्ण - से -
मृतप्राय - से -
शून्य में सुषुप्त थे -
जीवंत हो उठते हैं ,
और,
आँखों में भर जाते हैं !

हर एक स्मृति ,
हर एक दंश ,
हर एक पीड़ा ,
हर एक कथा ,
हर एक विरह -
- सजीव हो उठता है -
- और फिर तब -
तब -
मैं टूटकर रोता हूँ -
बहुत रोता हूँ -
हर कतरा रोता है -
हर श्वास रोती है -
हर स्मृति रोती है -
हर दंश रोता है -
हर पीड़ा रोती है -
हर कथा रोती है -
हर दिशा से आती बयार रोती है -
हर कोने में पसरा अंधकार रोता है !

और , ऐसे ही -
पहर, बदहवास - सा -
बीतता जाता है  ... 
फिर एक पल -
जब चेतन होता हूँ -
और सिसकियाँ अल्प -विराम लेती हैं -
तो ध्यान, बाहर से आती -
जानी - पहचानी  - सी -
आवाज़ पर जाता है !

एक बार फिर -
हैरान रह जाता हूँ -
जब पाता हूँ कि -
बाहर -
बिन सावन का सलिल -
पूरे वेग से बरस रहा है !









Saturday 9 July 2016

...when I saw your picture!


Reminiscences from my diary

Apr 7, '16 11:50 am
GS, CD, Bangalore


गाहे - बगाहे , जब भी कभी -
मेरी नज़र -
तेरी किसी तस्वीर  पड़ती है -
तो मन में -
एक हूक - सी उठ जाती है  ...
एक सिरहन - सी दौड़ जाती है  ...
हर रोम में !
तेरे जाने के बाद -
हर एक पल -
जो मुझसे गुज़रा है -
- सजीव हो उठता है,
और -
मेरे शरीर, मानस और आत्मा में -
तेरी विरह का दंश फूँक जाता है !
काश! कोई कायनाती हवा चलती -
या फिर -
कोई गंगा ऐसी उतरती -
जिसका सलिल -
मेरे यथार्थ को समेटे -
इन एकाकी युगों में से -
कुछ लम्हों को -
तुझ तक ले जाता ,
और,
गाहे - बगाहे -
तेरी नज़र भी -
मेरी किसी तस्वीर पर पड़ जाती !

Wednesday 29 June 2016

... and it's passing, without you!


Reminiscences from my diary

June 29, 2016
Wednesday, 10 PM
Murugeshpalya, Bangalore



मौसम आये , मौसम जाए -
पर तुम न लौट के आये -
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...

चितवन चीखे , बरसों बीते -
पर तुम न दरस दिखाए !
मन मेरा मगन, मुझे तेरी लगन -
कल्पों की अगन जलाए !
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...

साँझ सवेरे, सब कुछ भूले -
तू क्यों न बिसराए !
सलिल से सीला रोम - रोम -
बन अलाव दहकाए !
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...

नंदन फूँके , मधुबन लूटे -
नीरस निर्जन बन जाए !
मरु न मेघ न श्याम श्वेत -
न धनक ही रंग भर पाए !
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...

रतिया जागूँ , तारे ताकूँ -
पवन तुझ तक ले जाए !
हर तारा एक किस्सा तेरा -
नभ भी पूरा नप जाए !
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...

मौसम आये , मौसम जाए -
पर तुम न लौट के आये -
उमरिया यूँ ही बीती जाए  ...







Friday 24 June 2016


Dream to Dawn!

Reminiscences from my diary

May 29, 2015
Friday, 01:00 AM
Murugeshpalya, Bangalore


बीती रात का वह स्वप्न -
- न जाने किस लोक से -
- कौन दिशा से आकर -
अँधेरे कमरे में, नींद खोजती -
- आँखों में,
- समा गया  ...
और, कुछ ऐसा समाया कि -
मेरा खण्ड - खण्ड बिखरा अस्तित्व -
- एक ही क्षण में सिमटकर -
- दीप्तिमान हो गया !

ऐसा लगा, मानो -
सैकड़ों युगों से पल रही -
- तेरे न होने की कसक को -
- उस एक पहर में -
तृप्ति मिल गयी हो !
मानो -
हर आलय का शिव -
अपने कोपभवन से -
लौट आया हो,
और मुद्दत बाद -
उसके अधरों पर -
मुस्कान बिखरी हो !

पता नहीं,
महज़ इत्तेफ़ाक़ था -
- या कुछ और,
सुबह तेज़ बारिश हो रही थी -
और,
खिड़की की टूटी जाली से -
बूँद - बूँद दबे पाँव आता-
- सलिल -
- मुझे एक बार फिर उठा रहा था  ...











Saturday 4 June 2016

O, You Beloved Siesta!


Reminiscences from my diary

Monday, Feb 1, 2016
EGL, Bangalore
9 AM

मुख - मंडल पर कोहरा घन कर -
चक्षु में तुम छा जाती।
खेकर  तरणी नील - सलिल में -
तट पर किसी आश्रय पा जाती।
इठलाकर और मुस्काकर तुम -
संज्ञा में हो समा जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।

स्वप्न - लोक में हृदय नहीं रमता -
पर तुम ब्रह्माण्ड तरा जाती।
तुम अभिरामि , तुमको मैं निहारूँ -
ऐसा सम्मोहित कर जाती।
यूँ तो तुम भगिनी रश्मि की -
पर क्यों उस पर तुम झुंझलाती ?
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।

कुहासों को , अवसादों को तुम -
झट से छू - मंतर कर जाती।
स्पर्श मात्र से मधुरस भरता -
ऐसा कुछ जादू कर जाती।
स्मृतियों पर कसकर अंकुश तुम -
क्षितिज पार मुझे ले जाती।
हे निद्रा ! निद्रा , तू यामिनी -
- चीर के मुझ तक आ जाती।




Ahmedabad


Reminiscences from my diary

Wednesday, March 30, 2016
Ahmedabad Airport
7:35 pm


नया शहर
सपाट सड़कें
तेज़ रफ़्तार
दुस्तर पंथा
मिलनसार लोग

बेहमाया कबूतर
गर्म हवा
सुनसान बगिया
उदास ईटें
तपती छत

अजनबी दोस्त
आधी रात
कोल्ड कॉफ़ी
अकेली सड़क
लम्बा सफर

भव्य इमारत
तंग कमरा
टूटा रोशनदान
बिखरा कांच
मटमैली चादर

अधजले  कश
दो मकड़जाल
पसरा सन्नाटा
बिसराता नाम
खंडित आकांक्षा !






Saturday 28 May 2016

CRAVINGS



Reminiscences from my diary

July 8, 2010
Thursday, 5:00 pm
Munich Airport, Germany



मन करता है  ...

कभी छू लूँ -
- किसी ऐसे को ,
जो अविरल हो  ...
एक झूठा सच  ...
या फिर ,
यथार्थ, कल्पनाओं का  ... !
जैसे -
किसी गाँव की -
- धूल चाटती पगडण्डी पर पड़ती -
- मटमैली चांदनी  ...
या फिर ,
हरी दूब के किसी सूखे तिनके पर -
- झिलमिलाती,
ओस की कोई बूँद !

लगता है , कभी कभी ,
क्या ज़्यादा मांग रहा है मन ?
शायद हाँ ,
पर फिर  लगता है, नहीं !
ज़्यादा नहीं ,
बस गुम होना चाहता है -
चीड़ के पेड़ों के झुरमुट में -
- फैलें हुए हों , जो कोसों दूर तक  ... 
 या फिर ,
सागर की फेनिल उर्मियों में ,
जो छूती हों -
- किसी एकांत तट के कंकण !


सोचता हूँ, अक्सर -
क्या बस यहीं तक है -
- विचारों का क्षितिज ?
न, नहीं  ... !
पाना चाहता हूँ -
- कबूतर के गिरते किसी पंख पर -
- एक ऊंची उड़ान -
- किसी चमकते तारे तक  ... 
या फिर ,
किसी भयावह कानन में ,
अनगिनत जलते - बुझते जुगनुओं की ,
वही जगमगाहट !

मन कहता है ,
यहाँ बहुत शोर है  ... !
वही आवाज़ें , वही संगीत !
सुनना चाहता हूँ ,
दुर्गम पहाड़ों में -
- चट्टानों में , पत्थरों के बीच -
- किसी की खोई हुई गूँज  ... 
या फिर,
कभी कहीं तेज़ आंधी में -
- टीन की छत पर,
गिरता सलिल , बजता जलतरंग  !

मन करता है  ... 


Sunday 24 April 2016

The Pain And The Poison


Reminiscences from my diary
Sep 17, 2013
Tuesday 4:30 pm
GS, Bangalore


गीले जंगलों से -
 भीगे झुरमुटों से -
छन - छन कर आती रही ,
वही पुरानी टीस -
और,
मन में, मानस में, काया में,
रूह में भी -
दंश - सी चुभती रही !

आज उस बंजर राह पर -
मुद्दत बाद , अचानक ही -
जब कोई आहट हुई -
तो -
मचल - सी गयी टीस, और -
खोजने लगी -
- उस बटोही को,
हो जिसके पास -
मुक्ति का कोई उपाय !

आज जब फिर से टीस तड़पी -
तो एक बार, फिर -
- मथने लगी ,
निराशा के ताने बाने में -
- उम्मीद के कच्चे धागे !
भभक - सी गयी -
- उंस की , आशा की -
एक लौ !
फिर चुनने का मन किया -
उसी बंजर राह में बिखरे -
- उन सुन्दर पलों को !

अरसे बाद -
हूक भरी टीस ने  ...
सवेरा नया लगा, और खुशबू -
जानी पहचानी !
एक नए दर्द की लालसा -
हल्का -हल्का डर -
और,
न जाने कितने सवाल -
मूक , निरुत्तर !
सोचते - सोचते -
तड़पते - मचलते - मुस्कुराते -
दंश पी गयी अपना -
टीस -
नीलकंठ हो गयी आज !










Sunday 17 April 2016

Why do I write?


Reminiscences from my diary

January 6, 2016
Wednesday, 4 pm
IGI Airport, Delhi

Waiting for flight to Bangalore

जब भी कोलाहल के बीचों - बीच एकाकी - सा सिकुड़ा मैं शून्य में कुछ खोजता रहता हूँ , शून्य को निहारता रहता हूँ और फिर शून्य से ही आँख - मिचौनी खेलता रहता हूँ ; जब कभी दसों दिशाओं में असंख्य अपरिचित चेहरों को देखता हूँ ; जब कभी समय एक अजीबोगरीब - सी मृगतृष्णा - सा मुझे अपने पीछे भगाकर सलिलहीन मरू के मध्य छोड़ कहीं लुप्त हो जाता है , तब  ... तब यूँ ही एक ख्याल , ख्याल नहीं , एक प्रश्न - और वह भी नूतन नहीं, पुरातन  - मेरे मस्तिष्क पर कौंध जाता है , जिसका उत्तर समय स्वयं तो नहीं देता पर निमित्त बन करोड़ों विचार  दे जाता है , मानो प्रश्न का रहस्य एक उत्तर न होकर एक ब्रह्माण्ड हो - आद्यांत ब्रह्माण्ड - और हर तारक - एक परत , रहस्य की एक परत !

सवाल यूँ तो कुछ ज़्यादा कठिन नहीं, महज़ इतना ही है कि हम लिखते क्यों हैं !वैसे मानता हूँ  की व्यष्टि से समष्टि बनती है पर मेधा पर विश्वास करूँ तो नहीं मानता कि यहाँ बात समष्टि पर कुछ प्रतिपादित करने की है।  अतः प्रश्न यदि इतना भी हो कि मैं लिखता क्यों हूँ , तो भी काफी है, और यदि इस आसान से सवाल का आसान सा जवाब पा जाऊं , तो फिर कहने ही क्या !

कहीं सुना था या फिर हो सकता है कि कहीं पढ़ा हो - ऐसे ही किसी प्रश्न के दार्शनिक विवेचन की खोज में 'अज्ञेय' जी ने कभी कहीं कुछ लिखा था।  अवसर मिल पाता पढ़ने का तो हो सकता है कि यह पल , यह क्षण शब्दों में न ढल पाता।  अतः नहीं जानता कि इस  प्रश्न पर उनके विश्लेषण को न पढ़ पाना अच्छा हुआ या नहीं !

मन की सुनूँ और सुनकर गौर करूँ तो पाता हूँ कि जहाँ  तक मेरी बात है , मैं तब लिख पाता हूँ जब हृदय की आर्द्रता अपने गागर को पार कर जाती है।  कई लोग, कई आम लोग ऐसे भी हैं जो प्रसन्नता और सौहार्द के क्षणों को शब्दों के माध्यम से कैद करना चाहते हैं और काफी हद तक सफल भी रहते हैं।  सही भी है क्योंकि यदि ऐसा न हुआ होता तो साहित्य का सारा श्रेय दीन - दुखियों को जाता और यह संसार आंसुओं के सागर में कब का डूब चुका होता ! ऐसे में सांसारिक संतुलन का श्रेय प्रसन्नात्माओं को दिया जाता है और दिया जाना चाहिए भी !

खैर  ... बात समष्टि की नहीं है।  मैंने गौर किया है कि जब स्मृतियों के प्राचीन प्रेत मेरे वर्तमान को परेशान करने लगते हैं , जब समय का चक्र बीते कल के लोगों के समय के चक्रों से पीछे रह जाता है , जब मन का गवाक्ष मात्र एक ही दिशा में खुला रह जाता है , जब खण्ड - खण्ड बिखरा अस्तित्व पुनः जीवन पाने की लालसा रखने लगता है , जब जिजीविषा जिजीविषा न होकर एक मरीचिका रह जाती है , जब हृदय दम निकलने की कगार पर आ पहुँचता है , जब सृष्टि के पञ्च - तत्त्व साज़िश रचकर भूतकाल को जीवंत कर मेरे आज को भस्मीभूत कर जाते हैं , तब  ... तब, सघन निशा के गहराते उस जाल में अक्खर - अक्खर मिलकर मेरी भोर रच जाते हैं , मानो दम तोड़ती काया को संजीवनी मिल गयी हो ! कलम मानो किसी परी की छड़ी बनकर आती है और भूत को भूत रहने में सहायता करती है।  और, ये पन्ने  ... मानो कब से मेरी ही राह तक रहे थे कि कब मेरा मानस भीगे और कब मैं उन्हें रंगूँ !

और सच, जब इन्हें रंगता हूँ तो मानो मेरी रूह में एक  नूतन संज्ञा का संचार होता है ! अधरों पर हल्की - सी मुस्कान और हृदय में स्मृतियों के झंझानल पर एक मीठा अंकुश - बस तब लगता है कि शायद लिखने से अच्छा और कोई विकल्प नहीं और डायरी से अच्छी और कोई सहचारिणी नहीं !







Thursday 4 February 2016

YOU, THE SHAMS, IN ME!


Reminiscences from my diary
Nov 23, 2015  ( Happy Udaan Day, Happy birthday Siddharth )
Murugeshpalya, Bangalore


आज बैठे बैठे ,
यूँ ही -
अपनी बारीकियों पर -
- गौर किया ,
तो उनमें -
- तुझे घुला हुआ पाया  ...
... मानो ,
मैं  एक कतरा बूँद -
-और ,
मुझमें समाया तू -
- समंदर - सा !
मेरी हर एक हरकत -
मेरी हर एक बरकत -
मानो -
- तुझसे आती हो -
-और ,
तुझमें ही लौट जाती हो  ...
... जैसे,
तू तू नहीं -
मैं हो -
मुझे जीता - सा -
मुझमें जीता - सा !
मेरे युग , जैसे -
- तुझमें सिमटे हों ...
... और ,
हर  श्वास के साथ -
ऐसा लगा जैसे -
- तुझे अपनी रूह में घोला हो  ...
... और ,
खुद को , शून्य में -
- पिघलाया हो !
जानता हूँ ,
मेरे जिस्म,
और मेरी आत्मा के  -
- हर अणु को -
- तेरा सलिल सींचता है !
तुझमें , तेरी हवा में रमता है !
काश !
तू भी, कभी -
यूँ ही -
मेरी बारीकियों में -
- अपना अक्स देख पाता !


Friday 15 January 2016

Baba ... 

Reminiscences from my diary
Nov 26, 2006
12:30 AM
Saharanpur

शाम में टहलते हुए बरबस ही नज़र पड़ गयी एक मोटी उँगली थामे उस नन्हे हाथ पर  ... ज़रूर पार्थ के दादाजी हैं ! और फिर समय की सबसे छोटी इकाई जितना ही समय लगा मेरे बाबा को मुझ तक पहुँचने के लिए ! देखा तो मेरे बाबा भी मेरे साथ चल रहे थे !

सच, जीवन के वे पंद्रह बरस और  इन बरसों का हर लम्हा स्मृतियों की एक सुदीर्घ श्रृंखला बना गया जो मुझे अपने कल से और उस कल में जीते बाबा से हमेशा ही जोड़े रखता है ! यूँ तो बाबा के हर रूप पर , उनकी हर याद पर , स्मृतियों की इस श्रृंखला की हर कड़ी पर मन भाव - विह्वल हो उठता है , पर एक रूप ख़ास तौर पर ऐसा है , जिस पर मन बलिहारी हो हो जाता था  - तब भी , और आज सोचता हूँ, तो आज भी !

सावन की फुहारों में , मदमस्त बयार के साथ में , जब तहमद और अपने पसंदीदा कागज़ी रंग के कुर्ते में, हाथ में छतरी लिए वह बाहर से पान चबाते हुए आते थे , और 'बाबा' पुकारने पर 'बेटा जी' कहकर गले लगा लेते थे , तो ऐसा लगता था कि जीवन का चरम सुख मिल गया हो ! बाहों का वह घेरा आज तक अपना सामिप्य प्रदान करता है मुझे ! बाबा की यह छवि मन को अनायास ही आह्लादित कर देती है और ऐसा प्रतीत होता है मानो समय ठहर गया हो और ले गया हो मुझे सावन की उन्ही फुहारों में , उसी मदमस्त बयार के बीच , उन्ही बाहुपाश में , और गूंजने लगता है एक स्वर  .... 'बेटा जी' ... !

रौबीला व्यक्तित्व , कोमलता और कठोरता का अद्भुत समन्वय , दुनियादारी की उत्तम तहज़ीब , औरों की सहायता , और अपने पोता - पोती से सबसे अधिक लगाव  - ऐसे थे मेरे बाबा ! यूँ तो ताऊजी के दोनों बेटे हमसे बड़े थे , पर बाबा ने कभी देहरादून जाकर उनके पास रहने के लिए  नहीं कहा। बाबा के लिए तो बस उनके ये पोता - पोती ही सब कुछ थे। कैसे भुला दूँ गोधूलि के वे कालांश जब तैयार होकर वे हम दोनों को अपने साथ घुमाने ले जाते थे - रानी बाज़ार के पातालेश्वर मंदिर में 'भगवान जी' को फूल चढ़ाना , फिर मंदिर के बाहर वाली दुकान पर 'गोली वाला लिम्का' पीना , लौटते हुए 'टॉफियां ' और 'इमली के गोले' खरीदना , 'पतली गली ' वाले रास्ते से लौटना , लौटते हुए 'गफ्फार पानवाले ' से मिलना  ... न, क्यों भूलूँ इन सब को मैं !

भुलाये नहीं भूलता उनका वह हृदयग्राही रूप जब सूट-बूट पहने ,  करीने से टोपी मफलर लगाये वह चौक में जाने के लिए तैयार होते थे और छोटी - सी आयु के यह कहने पर कि - बाबा, काला टीका लगा लो , कहीं आपको नज़र न लग जाये - वह आयु को गले से लगा लेते थे और निहाल हो जाते थे - इतने 'हैंडसम ' थे मेरे बाबा !

रोज़ देर शाम को जब मैं 'इन्सुलिन' लेकर चौक में जाता था, बाबा अपने 'बेस्ट फ्रेंड' इंजीनियर अंकल के  गप्पे मारते मिलते थे।  'जैन साब ' ... हमारे अंकल 'जैन साब' की दुकान और उस दुकान का चबूतरा रोज़ शाम उनकी महफ़िल जमने का अड्डा होते थे।  कितनी सुन्दर थीं वे शामें , वे हंसी - ठहाके , वे बातें ! लौटते हुए बाबा हमेशा मेरे दाईं तरफ चलते थे और अपना बायां हाथ मेरे कंधे पर रखकर ढेर सारी बातें करते थे , 'मुझे कोका-कोला' और खुद 'फैंटा' पीते थे।  आज तक मुझे अपने बाएं कंधे पर उनका स्पर्श अनुभव होता है और जानता हूँ, हमेशा होता रहेगा !

कितने 'एक्टिव' थे मेरे बाबा !   जो भी काम करना है, वह करते थे - परिस्थितियां चाहे कैसी भी हों ! कोई आलस्य नहीं, कोई निराशा नहीं , समय अनुकूल हो या प्रतिकूल - अपनी अंतश्चेतना को हमेशा तंदरुस्त रखते थे।  सुबह उठकर दूध लेने जाते थे - गर्मी हो या सर्दी , मौसम ख़राब हो या तबियत - उनकी दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आता था।  अपना काम  गुनगुनाते रहते थे।  सवेरा होने पर मुझे उठाने का काम उन्ही का था।  मंदिर से लौटने के बाद नाश्ता करते और साइकिल पर बाज़ार की तरफ निकल जाते थे।  लौटने पर गली के बाहर से ही मुझे चार बार पुकारते थे - "शानू बाबू ,  शानू जी  .... शानू जी , शानू बाबू " - दुनिया के सभी मिष्ठानों में इतनी मिठास नहीं होगी जितनी मीठी उनकी आवाज़ होती थी।  उनके होने का यह एहसास अप्रतिम थे - तरसते हैं ये कान उसी गूँज, उसी आवाज़ के लिए।

कभी कुछ, कभी कुछ - रोज़ हम बच्चों के लिए कुछ - न - कुछ लाते थे।  मंगलवार के दिन 'मंगल बाज़ार' से मेरे लिए ढेरों ढेर नंदन, चम्पक, चन्दामामा , सुमन - सौरभ आदि किताबें लाते थे।  वही तो थे  जिनसे मैंने कहानियों के किरदारों से बातें करना सीखा ! रोज़, दिन में बाज़ार से आने के बाद , तहमद बदलकर , बड़ी कुर्सी पर बैठकर , चश्मा लगाकर, खीरा खाते हुए अखबार पढ़ते थे - एक  और छवि जो रूह तक घुली हुयी है। जहाँ दो बजे , वह टी.वी.  देखते हुए हमारे स्कूल से आने का इंतज़ार करते रहते थे और जब तक हम दोनों स्कूल से नहीं आते थे, खाना नहीं खाते थे।  हम दोनों से सलाद की थाली वह स्वयं लगाते थे।  आयु से लड़ाई होने पर हमेशा उसी का पक्ष लेते थे और कहते - कोई बात नहीं, छोटी बहन है। दिवाली हो या फिर नव वर्ष का आगमन, हमेशा हम दोनों को अपने साथ ले जाते थे और ' टीचर्स' के लिए 'ग्रीटिंग कार्ड्स' दिलवाते थे। शायद इसी लिए आज भी 'ग्रीटिंग कार्ड्स' बहुत पसंद हैं मुझे !

बीमार होने पर हमारा पूरा ख्याल रखना , कभी कहीं जाने पर हमारे लौटने की राह देखना , हमारे बिना मन न लगना , रोज़ रात में टी.वी. पर होने वाली नोक-झोंक , गर्मियों में  बड़े कमरे में कूलर के सामने सोना , सर्दियों में छत  पर बैठकर नाश्ता करना , दाढ़ी बनाना , रात में बिजली न होने पर लालटेन की रोशनी में एक साथ खाना खाना - सच असंख्य पल हैं, असंख्य स्मृतियाँ ! क्या -क्या और कैसे एक - एक को पन्नों पर उकेर दूँ!

 सर्दियों में  रजाई में बैठकर मूंगफली कहते थे और हम दोनों को छील - छील कर खिलाते रहते थे और कहानियां सुनाते रहते थे।  आज भी सर्दी की वह एक शाम पाने के लिए सब कुछ अर्पण कर सकता हूँ। उन्होंने कभी यह महसूस नहीं होने दिया कि पापा हमारे साथ  वक़्त बिताते हैं और पढ़ाई के अतिरिक्त कोई और बात नहीं करते थे।  वास्तव में अपने शैशव पर नज़र डालूं तो बस बाबा ही नज़र आते हैं।  

लिखते - लिखते एक और शाम दस्तक दे गयी है - जब मुझे स्कूल के जूते और घड़ी दिलवाने 'नया बाज़ार' ले गए थे - पांच सौ अस्सी रुपए के बाटा के जूते - आज भी मैंने अपने पास रखे हुए हैं।  कितना डांटा था पापा ने मुझे इतने महंगे जूते खरीदने के लिए , पर हमेशा की तरह बाबा ने सब सम्भाल लिया था।  

जब भी हम 'गुगाल' के मेले गए , उन्ही के साथ।  हर साल वह ही मेला घुमाते, झूले झुलाते ,  'ऑरेंज - बार' खिलाते , 'सर्कस' दिखाते - स्वर्णिम समय था वह, जब उनका प्रत्यक्ष सानिध्य मिला था ! छोटी होली से पहले हमारे लिए गुब्बारे, रंग, पिचकारी लाते थे।  फाल्गुन का आरम्भ उनके माथे पर लाल टीका लगाकर मैं ही करता था और वह छत के कमरे के दरवाज़े खोलकर अखबार पढ़ते हुए होली की फ़िज़ाओं का आनंद लेते थे। धनतेरस के दिन बुरादा लाकर खुद रंगते थे , धूप में रंगों को सुखाते थे और फिर मेरे और आयु के आँगन में रंगोली बनाने पर झूम से जाते थे  ... 

दो बज गए हैं। सुबह जल्दी उठना है !  विराम देना होगा , वैसे भी ये पिटारा कभी खाली नहीं वाला! आज के मरुस्थल के लिए बाबा न सही, उनकी स्मृतियों का सलिल ही सही , तर जाता हूँ उनके ख्याल से ही !