Sunday 24 April 2016

The Pain And The Poison


Reminiscences from my diary
Sep 17, 2013
Tuesday 4:30 pm
GS, Bangalore


गीले जंगलों से -
 भीगे झुरमुटों से -
छन - छन कर आती रही ,
वही पुरानी टीस -
और,
मन में, मानस में, काया में,
रूह में भी -
दंश - सी चुभती रही !

आज उस बंजर राह पर -
मुद्दत बाद , अचानक ही -
जब कोई आहट हुई -
तो -
मचल - सी गयी टीस, और -
खोजने लगी -
- उस बटोही को,
हो जिसके पास -
मुक्ति का कोई उपाय !

आज जब फिर से टीस तड़पी -
तो एक बार, फिर -
- मथने लगी ,
निराशा के ताने बाने में -
- उम्मीद के कच्चे धागे !
भभक - सी गयी -
- उंस की , आशा की -
एक लौ !
फिर चुनने का मन किया -
उसी बंजर राह में बिखरे -
- उन सुन्दर पलों को !

अरसे बाद -
हूक भरी टीस ने  ...
सवेरा नया लगा, और खुशबू -
जानी पहचानी !
एक नए दर्द की लालसा -
हल्का -हल्का डर -
और,
न जाने कितने सवाल -
मूक , निरुत्तर !
सोचते - सोचते -
तड़पते - मचलते - मुस्कुराते -
दंश पी गयी अपना -
टीस -
नीलकंठ हो गयी आज !










Sunday 17 April 2016

Why do I write?


Reminiscences from my diary

January 6, 2016
Wednesday, 4 pm
IGI Airport, Delhi

Waiting for flight to Bangalore

जब भी कोलाहल के बीचों - बीच एकाकी - सा सिकुड़ा मैं शून्य में कुछ खोजता रहता हूँ , शून्य को निहारता रहता हूँ और फिर शून्य से ही आँख - मिचौनी खेलता रहता हूँ ; जब कभी दसों दिशाओं में असंख्य अपरिचित चेहरों को देखता हूँ ; जब कभी समय एक अजीबोगरीब - सी मृगतृष्णा - सा मुझे अपने पीछे भगाकर सलिलहीन मरू के मध्य छोड़ कहीं लुप्त हो जाता है , तब  ... तब यूँ ही एक ख्याल , ख्याल नहीं , एक प्रश्न - और वह भी नूतन नहीं, पुरातन  - मेरे मस्तिष्क पर कौंध जाता है , जिसका उत्तर समय स्वयं तो नहीं देता पर निमित्त बन करोड़ों विचार  दे जाता है , मानो प्रश्न का रहस्य एक उत्तर न होकर एक ब्रह्माण्ड हो - आद्यांत ब्रह्माण्ड - और हर तारक - एक परत , रहस्य की एक परत !

सवाल यूँ तो कुछ ज़्यादा कठिन नहीं, महज़ इतना ही है कि हम लिखते क्यों हैं !वैसे मानता हूँ  की व्यष्टि से समष्टि बनती है पर मेधा पर विश्वास करूँ तो नहीं मानता कि यहाँ बात समष्टि पर कुछ प्रतिपादित करने की है।  अतः प्रश्न यदि इतना भी हो कि मैं लिखता क्यों हूँ , तो भी काफी है, और यदि इस आसान से सवाल का आसान सा जवाब पा जाऊं , तो फिर कहने ही क्या !

कहीं सुना था या फिर हो सकता है कि कहीं पढ़ा हो - ऐसे ही किसी प्रश्न के दार्शनिक विवेचन की खोज में 'अज्ञेय' जी ने कभी कहीं कुछ लिखा था।  अवसर मिल पाता पढ़ने का तो हो सकता है कि यह पल , यह क्षण शब्दों में न ढल पाता।  अतः नहीं जानता कि इस  प्रश्न पर उनके विश्लेषण को न पढ़ पाना अच्छा हुआ या नहीं !

मन की सुनूँ और सुनकर गौर करूँ तो पाता हूँ कि जहाँ  तक मेरी बात है , मैं तब लिख पाता हूँ जब हृदय की आर्द्रता अपने गागर को पार कर जाती है।  कई लोग, कई आम लोग ऐसे भी हैं जो प्रसन्नता और सौहार्द के क्षणों को शब्दों के माध्यम से कैद करना चाहते हैं और काफी हद तक सफल भी रहते हैं।  सही भी है क्योंकि यदि ऐसा न हुआ होता तो साहित्य का सारा श्रेय दीन - दुखियों को जाता और यह संसार आंसुओं के सागर में कब का डूब चुका होता ! ऐसे में सांसारिक संतुलन का श्रेय प्रसन्नात्माओं को दिया जाता है और दिया जाना चाहिए भी !

खैर  ... बात समष्टि की नहीं है।  मैंने गौर किया है कि जब स्मृतियों के प्राचीन प्रेत मेरे वर्तमान को परेशान करने लगते हैं , जब समय का चक्र बीते कल के लोगों के समय के चक्रों से पीछे रह जाता है , जब मन का गवाक्ष मात्र एक ही दिशा में खुला रह जाता है , जब खण्ड - खण्ड बिखरा अस्तित्व पुनः जीवन पाने की लालसा रखने लगता है , जब जिजीविषा जिजीविषा न होकर एक मरीचिका रह जाती है , जब हृदय दम निकलने की कगार पर आ पहुँचता है , जब सृष्टि के पञ्च - तत्त्व साज़िश रचकर भूतकाल को जीवंत कर मेरे आज को भस्मीभूत कर जाते हैं , तब  ... तब, सघन निशा के गहराते उस जाल में अक्खर - अक्खर मिलकर मेरी भोर रच जाते हैं , मानो दम तोड़ती काया को संजीवनी मिल गयी हो ! कलम मानो किसी परी की छड़ी बनकर आती है और भूत को भूत रहने में सहायता करती है।  और, ये पन्ने  ... मानो कब से मेरी ही राह तक रहे थे कि कब मेरा मानस भीगे और कब मैं उन्हें रंगूँ !

और सच, जब इन्हें रंगता हूँ तो मानो मेरी रूह में एक  नूतन संज्ञा का संचार होता है ! अधरों पर हल्की - सी मुस्कान और हृदय में स्मृतियों के झंझानल पर एक मीठा अंकुश - बस तब लगता है कि शायद लिखने से अच्छा और कोई विकल्प नहीं और डायरी से अच्छी और कोई सहचारिणी नहीं !