Saturday 23 July 2016

...Yet again! I cried, it rained!



Reminiscences from my diary

July 19, '16
11 am
GS, CD, Bangalore

जब भी कभी -
हृदय की आर्द्रता,
और उसकी तीव्रता -
यहाँ - वहाँ बिखरे हर गागर में -
सिमटकर भी नहीं सिमट पाती -
- और आँखों तक छलछला उठती है  ... 

तब  ... 
तब, नयन ही नहीं -
वरन्
मन, मस्तिष्क और ग्रीवा की -
- हर नाड़ी -
- चीत्कार कर उठती है 
और ध्वस्त होने की सीमा तक -
- आ पहुँचती है !

उस एक क्षण -
न जाने कितने ही युग -
जो रुग्ण - से -
जीर्ण - शीर्ण - से -
मृतप्राय - से -
शून्य में सुषुप्त थे -
जीवंत हो उठते हैं ,
और,
आँखों में भर जाते हैं !

हर एक स्मृति ,
हर एक दंश ,
हर एक पीड़ा ,
हर एक कथा ,
हर एक विरह -
- सजीव हो उठता है -
- और फिर तब -
तब -
मैं टूटकर रोता हूँ -
बहुत रोता हूँ -
हर कतरा रोता है -
हर श्वास रोती है -
हर स्मृति रोती है -
हर दंश रोता है -
हर पीड़ा रोती है -
हर कथा रोती है -
हर दिशा से आती बयार रोती है -
हर कोने में पसरा अंधकार रोता है !

और , ऐसे ही -
पहर, बदहवास - सा -
बीतता जाता है  ... 
फिर एक पल -
जब चेतन होता हूँ -
और सिसकियाँ अल्प -विराम लेती हैं -
तो ध्यान, बाहर से आती -
जानी - पहचानी  - सी -
आवाज़ पर जाता है !

एक बार फिर -
हैरान रह जाता हूँ -
जब पाता हूँ कि -
बाहर -
बिन सावन का सलिल -
पूरे वेग से बरस रहा है !









Saturday 9 July 2016

...when I saw your picture!


Reminiscences from my diary

Apr 7, '16 11:50 am
GS, CD, Bangalore


गाहे - बगाहे , जब भी कभी -
मेरी नज़र -
तेरी किसी तस्वीर  पड़ती है -
तो मन में -
एक हूक - सी उठ जाती है  ...
एक सिरहन - सी दौड़ जाती है  ...
हर रोम में !
तेरे जाने के बाद -
हर एक पल -
जो मुझसे गुज़रा है -
- सजीव हो उठता है,
और -
मेरे शरीर, मानस और आत्मा में -
तेरी विरह का दंश फूँक जाता है !
काश! कोई कायनाती हवा चलती -
या फिर -
कोई गंगा ऐसी उतरती -
जिसका सलिल -
मेरे यथार्थ को समेटे -
इन एकाकी युगों में से -
कुछ लम्हों को -
तुझ तक ले जाता ,
और,
गाहे - बगाहे -
तेरी नज़र भी -
मेरी किसी तस्वीर पर पड़ जाती !