Sunday 31 December 2017

Will the new year be really new?



Reminiscences from my diary

Dec 31, 2017
Sunday 11:45 PM
Murugeshpalya, Bangalore


पिछली कुछ शामों से चर्चा है कि -
कल की तारीख़ -
एक नयी - नवेली भोर लाएगी  ...
एक नया रोशन दिन  ...
एक खूबसूरत - सी नयी शाम  ... !

जब से सुना है -
- एक उधेड़बुन में हूँ !
मेरी सुबह नयी कैसे होगी ?
कल क्या नींद में डूबे तुम -
- मुझे नींद से जगाने आओगे ?
कल क्या फिरआँख मलते - मलते, तुम्हारी कोई पलक -
- मेरे तकिये पर आकर ठहर जायेगी ?
क्या कल सुबह, मेरी कॉफ़ी का मग -
- तुम्हारे चाय के प्याले से गुफ़्तगू करेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी भोर नयी - नवेली कैसे हुई ?

दिन भी तो वैसा ही होगा !
मेरे जैसा !
अपने में ही डूबा - सा !
पुरानी किताबें -
पुराने अख़बार -
पुराने गाने -
पुरानी यादें !
नया तो तब होता, जब -
कभी तेज़, कभी गुनगुनी होती धूप में -
तुम और मैं -
पुरानी सड़कों को सजाते पुराने किताबघरों की -
- ख़ाक छानते फिरते !
पर अब क्या नयी सपाट राहों का मुसाफ़िर -
- पुरानी पगडंडियों को पहचान पायेगा ?

नहीं न  ... !

फिर मेरा दिन नया और रोशन कैसे हुआ ?

और जब वही पुरानी भोर होगी -
वही पुराना दिन होगा -
तो फिर नयी गोधूलि की उम्मीद कैसे करूँ ?
क्या कल शाम, मेरी आँख की कोर में -
- कोई नमी आकर नहीं ठहरेगी ?
क्या कल शाम, मेरे पाँव रोज़ की तरह -
- अपनी कॉलोनी की हरी संकरी गलियाँ नहीं नापेंगे ?
क्या कल की शाम तुम मेरे साथ -
- मेरी ही कोई कविता सुनोगे ?
क्या कल की शाम तुम मुझसे -
- अपनी आपबीती साझा करोगे ?

नहीं न  ... !

फिर मेरी शाम नयी और खूबसूरत कैसे हुई ?

लोग भी न  ... !

आखिर पहली जनवरी को भी -
- सलिल बरसता है भला  ... !





Friday 20 October 2017


My bloody fist!


Reminiscences from my diary

Sunday Oct 1, 2017
10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


 जिस एक पल तू मुझे -
- हमेशा के लिए छोड़कर गया था -
उस एक पल को -
- मैंने कसकर अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था !
दूर तक जाती तेरी गाड़ी को -
- एकटक देखा था मैंने !
कितनी ही देर बीच सड़क पर खड़ा रहा था मैं !
एक आँख जम - सी गयी थी,
और दूसरी आँख का पानी रुका ही नहीं था !

...और फिर अचेतन देह और अचेतन रूह का बोझ उठाये मेरे कदम -
- जब वापिस लौटे -
- तो मेरे कमरे से पहले -
- तेरे कमरे के दरवाज़े पर रुक गए थे !
उस एक पल, मेरी उँगलियों ने तेरे कमरे के दरवाज़े को -
- ऐसे छुआ था, जैसे तेरे बिखरे बाल सहला रही हों !

... और फिर कमरा अंदर से बंद कर -
- कितनी ही देर अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !
कितनी भारी लगी थी उस कमरे की हवा !
हवा क्या, तेरी मुश्क ही तो थी !
कैसे अपने नाखूनों से तेरे कमरे की दीवारों को -
- कुरेदता रहा था घंटों, मानो -
अपने कुछ निशान तूने मेरे लिए छोड़े हैं, और वे निशान -
- इन दीवारों में छिपे हुए हैं !
घंटों तेरे बिस्तर की मैली चादर को लपेटकर -
- आँख खुले मुर्दे सा -
- लेटा रहा था मैं !
और फिर अचानक से,  उन सिलवटों को नोचने लगा था मैं !
शायद तूने अपनी नींदें छोड़ी थीं उनमें !

तेरी बिखरी किताबों के बिखरे पन्ने -
झूठा गिलास -
एक दो पुराने कपड़े -
कुछ अधजली अगरबत्तियाँ -
कुछ बिखरी राख -
सब कुछ सीने से चिपकाए -
अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !

कब वह दिन बीता  ...
कब वह बदहवास - सी शाम आई  ...
खबर ही नहीं लगी थी !

 वह दिन, वह शाम -
- मेरी मुट्ठी को लहूलुहान कर चुके हैं !
खून रिस रिसकर सूख गया है !
पस रिस रिसकर जम गयी है !
हर लकीर तड़प रही है !
कभी तो आ और -
मेरी मुट्ठी को उस लम्हे से आज़ाद करा जा !

क्या एक और एहसान नहीं करेगा मुझपर ?















Thursday 14 September 2017

This language is not a language!


Reminiscences from my diary

September 14, 2017
Thursday 10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


तू पथ - पथ की साथी है,
तू पग - पग की काठी है।
हृदय की अग्नि में जो पिघले -
तू उन शब्दों की बाती है।

हिंदी - तू सहचारिणी है  ...

तू पाथेय पीड़ा का मेरी,
मेरे तम की रश्मि तू है।
औ' गोधूलि की धूल में लिपटी -
स्वप्नगामिनी निशा भी तू है।

हिंदी - तू निशाचरणी है  ...

कटुता हरती, लघुता हरती, तू -
स्मृति अनश्वर बनाती है।
मन - मानस के द्वेष भी हरती,
विस्तृत स्नेह कर जाती है।

हिंदी - तू मृदुभाषिणी है  ...

करूँ जो मानवीकरण तेरा मैं,
तू मातंगी मीनाक्षी है।
प्रेम - राग से आलिंगनबद्ध, तू -
मन्मथ, तू कामाक्षी है।

हिंदी - तू प्रणयदायिनी है  ...

तू सुर, लय और ताल पिरोती,
संगीत अजर कर जाती है।
एकांत, हास, क्रंदन रूदन, हर -
भाव अमर कर जाती है।

हिंदी - तू स्वरागिनी है  ...

तू श्याम रंग कान्हा - सी चंचल,
नीलकंठ, गजगामिनी है।
निसर्ग मेरा, तू मेरा स्वर्ग,
यज्ञ - समीधा - सी पावनी है।

हिंदी - तू मोक्षदायिनी है  ...

निदाघ, वसंत तेरे पाहुना,
शरद - प्रहार अपनाया है।
श्रावण को आश्रय देती तू -
प्रवाह सलिल - सा पाया है।

हिंदी - तू ऋतुगामिनी है  ...


Monday 28 August 2017

A beautiful Safarnama...



Reminiscences from my diary

March 3, 2017 Friday
03:30 pm
GS, CD, Bangalore


यूँ तो मैं एक बार पहले लिख चुका हूँ अल्मोड़ा के सफ़र के बारे में, पर लगता है मानो उन चंद शब्दों में शायद ही उतना उकेर पाया हूँ जितना चाहता था ! अभी भी उस सफ़र की असंख्य स्मृतियाँ मुझे घेरे रहती हैं और बरबस ही मेरी आँखों में चमक और अधरों पर मुस्कान ले आती हैं।  अब तक के जीवन के सबसे खूबसूरत लम्हों में शामिल हो गया है यह सफ़र।  २ दिसंबर की कंपकंपाती सर्दी , हम पाँच साथी, एक 'कोज़ी ' -सी गाड़ी, हिंदी गाने और बातें ही बातें ! कहाँ से शुरू करूँ और किन शब्दों में ढालूँ इस सफ़रनामे को ! दिल्ली से शुरुआत की, रामपुर का नाश्ता, बढ़ते - घटते - भटकते रास्ते, कितने ही पार होते छोटे - बड़े गाँव, मंज़िल बताते लोग, कभी बंजर तो कभी चहचहाती सड़कें, कभी धूल भरा गुबार तो कभी हरी छतरियाँ  ... मैदानों को पार करते - करते कब हम पहाड़ों को छू गए - पता ही नहीं चला !

हवा सर्द से और सर्द होती जा रही थी  ... रास्ते संकरे से और संकरे होते जा रहे थे   .... सफ़र खूबसूरत से और खूबसूरत होता जा रहा था  ... न हिंदी गानों की कोई कमी थी, न हम पाँचों की बातों की ! तभी पता चला, काठगोदाम में हैं हम ! अंदर तक अतीत की एक ललक भभक उठी।  कितनी ही बार ज़िक्र आया है इस जगह का ! कितनी ही बार मैंने काठगोदाम शिवानी की आँखों से देखा है।  एक अलग - सी धूप चमकती - सी दिखाई देती है इन पहाड़ों में।  एक अलग - सी सादगी बसती दिखाई देती है यहाँ के लोगों में , उनकी जीवन - शैली में।  

एक लक्ष्य सामने था हम लोगों के।  अँधेरा होने से पहले, या कम - से - कम अँधेरा घना होने से पहले अपने अल्मोड़ा के 'होम - स्टे ' पहुंचना ! नयी , अनजानी जगह थी और दिसंबर की कड़कड़ाती सर्दी ! ज़्यादा रोमांच परेशानी ला सकता है और इस बात से हम पाँचों सहमत थे ! गाड़ी की रफ़्तार सावधानी से बढ़ी। अब हम सबका ध्यान आस - पास पसरी शांत नैसर्गिकता अपनी ओर आकर्षित कर रही थी।  उथली पर तेज़ गति वाली नहरें, धूप में आराम फरमाती घास, कुछ चमकते तो कुछ धूमिल - से पहाड़, कुछ हरी तो कुछ बंजर पहाड़ियाँ, नदियों के किनारों पर बिखरे कंकण  - प्रकृति की हर एक इकाई उसकी सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ रही थी! रास्ते में पता चला कि कुछ दूरी पर बहुत लज़ीज़ दाल के पकौड़े मिलते हैं।  यूँ तो वैसे भी हम सभी एक गर्म चाय की प्याली के लिए तड़प रहे थे।  पकौड़ों की दुकान आई, गाड़ी नहर किनारे लगाई, कमर सीधी की और हम सब टूट पड़े पकौड़ों पर ! 

कब पैंतालीस मिनट बीत गए, पता ही नहीं चला ! सूरज ढलता जा रहा था और मंज़िल अभी भी ज़्यादा पास नहीं थी ! एक बार फिर गाड़ी ने अपनी रफ़्तार पकड़ी। ढलते सूरज की बिखरी लालिमा आँखों में संजोये और लता - जगजीत - रफ़ी के मधुर गीतों को हिमालय की सर्द हवा में घोले हम निकल पड़े अल्मोड़ा की डगर !

सच! जितनी सुन्दर मंज़िल निकली, उतनी ही या फिर यह कहूँ कि उससे भी सुन्दर था - हम पाँचों का यह सफ़रनामा !













Saturday 19 August 2017

A night for a night



Reminiscences from my diary

Aug 19, 2017 Saturday
10:30 pm
Murugeshpalya, Bangalore


वे कहते हैं -
रात की न जात होती है, न नस्ल -
न मुल्क होता है, न शक्ल !
रात तो बस रात होती है -
सबके लिए एक - सी !
अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि -

- तेरी और मेरी रात एक -सी कहाँ हैं !
एक रात तेरी है  ...
एक रात मेरी है  ...!

कितनी अलग है तेरी और मेरी रातें !
एक रात तड़प - सी कटती है -
एक रात खुमारी में सजती है !
और मेरी रात की सिसकियों में -
- जब तेरी रात का सुकून मिलता हैं, तो शायद -
- एक सितारा पैदा होता है -
- कहीं किसी आकाश-गंगा में !

मेरी रात का मंज़र -
- शायद मेघदूत - सा है !
बादल का टुकड़ा -
एक आवारा टुकड़ा,
जो शायद -
- मेरे सपनों की तड़प -
- तेरी रात तक पहुँचाना चाहता है !

कुछ बोल लिए फिरती है मेरी रात -
पता नहीं क्या, पर अक्सर -
किसी धुन में पिरोने की कोशिश करती है उन्हें -
- पर चाहकर भी गुनगुना नहीं पाती !
गुनगुनाएगी भी कैसे !
उन बोलों की लय तो -
तेरी रात चुराकर बैठी है, और मेरी रात -
- यह राज़ जानती है शायद !
वैसे,  क्या तेरी रात ने भी -
इस गीत को -
पूरा करने की कोशिश की है कभी ?

रोज़ सूरज ढलते ही -
मेरी रात -
जुगनू - सी -
किसी ओट से निकलती है -
और ढूँढने निकल पड़ती है -
तेरी किसी ऐसी रात को -
- जिसमें तूने -
मेरा अक्स -
- या मेरा एहसास -
- घोला हो कभी !

कहीं से -
मेरी रात को -
रातों के उस मोहल्ले का पता मिल गया है -
जहाँ तेरी रात-
कभी छत से, कभी खिड़की से -
चाँद से गुफ़्तगू करती थी !
बस  ... तभी से -
मेरी रात -
उसी चाँद की रोशनी में -
उस मोहल्ले का -
हर दरवाज़ा, हर रोज़ खटखटाती है !

और यह तो तय है -
जब भी कभी -
मेरी रात -
मेरी ही खुशबू से भरी -
तेरी किसी रात से टकराएगी  ...
तो फिर -
न वो तेरी रात होगी  ...
न वो मेरी रात होगी  ...
वो बस एक रात होगी !
एक कायनाती रात ... !








Saturday 5 August 2017

The dying day


Reminiscences from my diary

August 1, 2017
05:00 pm


कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
एक बोझ हो  ...
और बोझ भी ऐसा कि -
- साँस भी साँस न ले पाए जैसे -
- किसी ने हिमालय खड़ा कर दिया हो -
- उसकी छाती पर !
एक मशक्क़त - सी करनी पड़ी आज -
- जीने के लिए !
एक -आधा लम्हा तो ऐसा भी लगा कि -
- बस ! अब और नहीं !
एक भी और साँस खींचना अब दूभर है !
फेफड़े -
- कभी चलते - चलते रुक रहे थे, और कभी -
- रुक - रुक कर चल रहे थे !

कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
- एक उधार हो, एक क़र्ज़  ...
... जिसे चुकाना हो हर हाल में !
रोते - रोते -
मरते - मरते -
जीते - जीते -
मर कर भी न मरते हुए -
जी कर भी न जीते हुए -
मानो -
कोई लम्हा है -
- जिसकी बेशकीमती उधारी है जन्मों की  ...
... जो हवा पर सवार है, और बस -
- दस्तक देने ही वाला है !
और, अगर -
- उसे ब्याज सहित मूल न मिला तो -
- वह मुझे शाप देगा शायद !
ऐसे ही दिनों का शाप !
ऐसे ही जीने का शाप !

कुछ यूँ - सा बीता आज का दिन, मानो -
भटक गया हो -
- किसी रेगिस्तान में  ...
और तड़प रहा हो, चिल्ला रहा हो -
एक बूँद सलिल के लिए -
एक बूँद इश्क़ के लिए !
ऐसा लगता रहा जैसे -
- आस - पास कोई नहीं है !
बस यह दिन है -
- चिलचिलाती धूप में तपता हुआ !
चारों ओर बस मरीचिकाएँ -
- और हर कदम के साथ धँसते -
- इस दिन के पाँव !

शाम ढल आई है, पर -
आज के दिन का असर -
कुछ यूँ - सा हुआ है कि -
अजब - सी रवानी है  ...
अजब - सी जद्दोजहद !
अब तो बस रात का इंतज़ार है !
क्या पता-
- रात के गहराते अँधेरे और चिल्लाते सन्नाटे में -
- मेरे दिन को सुकून मिल जाए !
















Saturday 29 July 2017

Will thou meet thou?



Reminiscences from my diary

July 28, 2017
05:00 PM 


लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं -

क्या मुझे तुम्हारी याद नहीं आती !
और मैं  ... बस मुस्करा देता हूँ !
अब उन्हें कैसे समझाऊँ कि -
-तुम हमेशा मेरे साथ ही तो रहते हो !

अरे ! हँस  क्यों रहे हो ?
मैं सच कह रहा हूँ !
एक वक़्त के बाद शम्स रूमी से अलग थोड़े ही था !
मैंने अपने तुम में तुम्हारे तुम को -
- इस कदर समेट लिया है  कि -
अब मुझे तुम्हारे न होने का एहसास -
- महसूस ही नहीं होता !

यूँ  तो मैं ही नहीं , तुम भी जानते हो कि -
गाहे बगाहे -
जाने अनजाने ही सही -
- पर अब बदल गए हो तुम !
इतना कि अगर तुम तुम से मिलोगे -
- तो शायद  ... 
... तुम तुम को पहचान ही नहीं पाओगे !

... पर भी कहता हूँ तुम्हें -
- मुझसे न सही , 
आओ मिलने कभी तुमसे ही !
क्या पता -
तुम्हारी ही कोई भूली - बिसरी याद -
कोई बात -
कोई किस्सा -
कोई नुक्कड़ -
कोई चेहरा -
कोई मुस्कराहट -
कोई बारिश -
कोई ठहाका -
कोई रात -
कोई चाँद -
कोई लम्हा -
कोई 'तुम' -
कौंधा ही जाए तुम्हें !

लेकिन ,
एक बात का ख़्याल रखना !
वापिस जाते वक़्त -
- तुममें से कुछ भी , तुम्हें -
- साथ ले जाने का -
- न हक़ है, न इजाज़त !

आखिर दो - दो बार क़त्ल कर के क्या मिलेगा तुम्हें ?








Saturday 3 June 2017

Crucifix


Reminiscences from my diary

June 2, 2017
10:45 pm
GS, CD, Bangalore


फ़क़त इतनी - सी बात है कि -
तुम्हे अपनी परवाज़ का ख़ुमार रहा हमेशा -
और मुझे -
- तुम्हारी कुर्बत का ग़ुमान !

और बख़्त का रक्स देखो ज़रा -
- इस ख़ुमार और ग़ुमान की कश्मकश में -
- हम कितनी दूर निकल आए हैं !

... असल में, 'हम' नहीं , तुम !
हाँ !
सिर्फ़ तुम दूर निकल आए हो !
मैं तो वहीं हूँ  ...
उसी सालिब पर !
तुम्हारे उन्स में -
मुसलसल मरता हुआ  ...


[ परवाज़     -  flight
   कुर्बत       -  closeness
   बख़्त        -  destiny
   रक्स         -  dance
   सालिब     -   crucifix
   उन्स         -  companionship
   मुसलसल  -  slowly ]

Wednesday 24 May 2017

The midnight visitor

Reminiscences from my diary

May 21, 2017
01:30 AM
Murugeshpalya, Bangalore


आधी रात होने में -
आधा पहर भी नहीं बचा है !
पर, तुम हो कि -
- सोने ही नहीं दे रहे हो !
क्या बात है ?
सब ठीक है न ?
सात आसमानों पार से, इतनी रात गए -
कोई यूँ ही, बिना खबर -
- आता है भला ?
कब से खिड़की खटखटा रहे हो !
रुको, ज़रा बाहर आने दो मुझे !

लो, मैं बाल्कनी में आ गया हूँ !
अब थोड़ा सा थम भी जाओ !
कब तक सामने टीन की छत पर -
- धम्म - धम्म करते रहोगे ?
वैसे एक बात कहूं ?
इस नीरव - से पहर में -
इस नीरव - सी सड़क की -
नीरव - सी स्ट्रीट - लाइट की रोशनी में -
तुम सलोने लग रहे हो !

... और, ये जो तुम -
- मेरे मनी - प्लांट के हर पत्ते पर -
- आकर बैठ गए हो  ...
... रात भर तो रुकोगे न ?
या फिर, हमेशा की तरह -
- सुबह होते ही गायब हो जाओगे ?

... और ये जो तुम बीच - बीच में -
- मुझे छू रहे हो -
- तुम शायद खुद भी नहीं जानते कि -
- तुम मुझमें कितना उन्माद भर रहे हो !
अगर ऐसा करते रहोगे, तो फिर -
- मुझे नींद कैसे आएगी ?

... वैसे, ऐसा ही तो करते आए हो -
- तुम, हमेशा !
जब तुम्हें नींद नहीं आती -
- तुम मुझे भी सोने नहीं देते !
लगा था  ...
बरस बीतने के साथ -
- तुम्हारी यह आदत भी बीत जाएगी !
पर न  ...
... शायद तुम्हारी कुछ आदतें -
- अब भी वैसी ही हैं  ...

... वरना, इतनी रात गए -
- इतनी बरसात होती है भला !!










Saturday 13 May 2017

Moments 'n' Memories, dispersed!



Reminiscences from my diary

May 12, 2017
Friday, 05:00 pm
GS, CD, Bangalore


आज, कुछ यूँ सा हुआ कि -
तुम्हे याद करते - करते -
कब शाम -
मेरे चाय के कुल्हड़ में घुल गई -
और मुझमें उतर गई -
- पता ही न चला !

*****

हुआ तो कुछ यूँ भी था एक दफा, जब -
अपने कमरे की खिड़की पर -
- तुम्हारा इंतज़ार बाँधा था !
जानते हो ? आज भी तुम्हारा इंतज़ार -
- उसी खिड़की की टूटी जाली में -
- उलझा पड़ा है !

*****

एक बार, पलकों से -
- चाँद काटा था मैंने !
और पहरों पहर रात खेई थी !
कुछ रंजिशें थी शायद -
- उस पार भी !
न भोर मिली , न तुम !

*****

वो अलसाई - सी शब,
सावन का सलिल -
और सलिल से सीला मन !
तीनों ने कितनी बार , कितनी ही -
- कहानियाँ गढ़ी हैं ! पता है -
- उन कहानियों के बाहर भी तुम, अंदर भी तुम !

*****

Saturday 8 April 2017

Strings yet attached!



Reminiscences from my diary

Apr 5, 2017
10 pm
In flight from Delhi to Bangalore


बरस बीत गए हैं तुम्हे गए हुए,
पर न जाने कैसी गिरहों में -
- तुम मुझे बाँध गए कि -
आज तक, उनसे मेरी -
- रिहाई नहीं हुई !

जितनी कोशिश, जितनी जद्दोजहत -
करता हूँ -
इन गिरहों को सुलझाने की -
उतना ही उलझता चला जाता हूँ !
इन धागों का -
- या तो कोई अंत नहीं है,
और अगर है, तो शायद -
- तुम पर है !

शायद इन गिरहों के ओर - छोर -
- तुम्हारी उँगलियों में कसे हुए हैं !
जितनी ही दूर -
- तुम जाते जा रहे हो,
ये धागे मुझे उतना ही -
- कसते जा रहे हैं !

जाते - जाते, कहीं तुम -
- इन गिरहों में -
कोई अफसून तो नहीं फूँक गए थे ?
लगता तो यही है जैसे -
- तुमने मुझे बांधकर -
- अपना बदला लिया हो !
तुम्हारे साथ चलने के लिए मना कर देने का -
- बदला !
तुम्हे अकेले सात - समुन्दर पार जाने देने का -
- बदला !
तुम्हे बीच मझदार में छोड़ देने का -
- बदला !

हाँ ! यही बात है , लगता है  ...
खैर  ...
अब तुम नहीं हो !
हैं, तो बस ये गिरहें -
मेरी रूह को कसते ये धागे -
जो मेरी ज़िस्त से रु-ब-रु कराती -
- हर सांस के साथ -
एहसास दिलाते हैं -
तुम्हारे होने का भी -
तुम्हारी न होने का भी !





Sunday 19 March 2017

She was beautiful! She is..!



Reminiscences from my diary

March 16, 2017
2:00 AM
Murugeshpalya, Bangalore


बचपन से ही -
आँखों के पानी में -
एक तस्वीर तैरती है  ...
मेरे नाना - नानी की तस्वीर !
गुड्डा - गुड्डी से मेरे नाना - नानी ...

नाना, जो अपनी -
- नसों के गुच्छों की बेवफाई झेलते -
ज़्यादा चल नहीं पाते थे  ...
- अक्सर कुर्सी पर बैठे -
अपना ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. -
- मजे से देखते मिलते !
यूँ भी , शायद गुस्से को उनकी मोटी नाक -
- पसंद ही नहीं आई कभी !
जब देखो -
"सुशीला ! सुशीला !"
"सुशीला, इधर आना !"
"सुशीला, सुन रही हो ?"
और, उनकी  हर आवाज़  पर -
माथे को बड़ी लाल बिंदी से सजाने वाली -
- मेरी छोटी-सी , मोटी-सी नानी -
कुछ गुर्राती -
कुछ इठलाती -
ठुमकती - ठुमकाती -
पहुँच जाती थी कुर्सी और टी.वी. के पास  ...
"उफ्फ ! जब देखो, सुशीला सुशीला !"
"काम करूँ या तुम्हारी बातें सुनती रहूँ !"

नोंक - झोंक  -
रूठना - मनाना -
हँसी - ठहाके -
गुड्डा - गुड्डी से मेरे नाना - नानी !

चौदह बरस गुज़र गए -
अपनी नानी के माथे पर -
- वो बड़ी-सी लाल बिंदी देखे हुए !
चौदह बरस गुज़र गए -
उस टी.वी. और कुर्सी वाले कमरे में -
- मकड़जाल पलते हुए !
चौदह बरस गुज़र गए -
नानी को चार बच्चों में बँटते हुए !
अपने अंदर के झंझानाल को -
- अपनी मुस्कान में लपेटे हुए !
अपने अंदर के एकाकीपन को -
- अपने नयनों में कैद किए हुए !

सोचता हूँ -
नाना का ख़्याल -
अपने बच्चों के बचपन का ख़्याल -
उस पुरानी गली, पुराने घर, पुराने कमरे का ख़्याल -
नानी की रूह को रह रह  चीर जाता होगा न!
"सुशीला सुशीला" की आवाज़ -
- अब भी उनके कानों में गूंजती होगी न!

आखिरी बार जब देखा था -
तो बालों को सफ़ेद पाया था !
डाई लगानी छोड़ दी है अब !
दांत भी नकली लगाने लगी हैं !
मेरे साथ लूडो भी कम खेलने लगी हैं !
बूढ़ी लगने लगी हैं मेरी नानी !

आज शाम ऑफिस से निकल रहा था -
जब माँ का फ़ोन आया !
,पता चला, नानी की रीढ़ की हड्डी -
- दुरुस्त नहीं रही !
दर्द से झटपटा रहीं हैं !
समझ नहीं आया , क्या बोलूँ !

बच्चों में बँटती मेरी नानी -
कितने ही दर्दों से पार होती मेरी नानी -
शांत, धीर, गंभीर सिंधु सी- मेरी नानी -
नाना की हंसी में खिलखिलाहट घोलती मेरी नानी -
कभी न थकने वाली मेरी नानी -
शायद, अब -
थकती जा रही हैं  .... !






























Saturday 18 February 2017

Spinner of yarns



Reminiscences from my diary

Feb 15, 2017
04:00 pm
GS, CD, Bangalore


सुनो ! सुन रहे हो ?
तुमने तो कहा था -
- कभी नहीं भूलोगे  ...
- कभी नहीं भुलाओगे। ...
झूठ कहा था क्या ?

तुमने कहा था कि -
- जब भी तुम्हें पास न पाऊँ, तो बस -
- चाँद के कान में फुसफुसा दूँ  ...
तुम तक मेरा दिल पहुँच जाएगा !
पर सुनो !
मुद्दत बीत गयी है -
मैं रोज़, कभी पूरे , तो कभी आधे - अधूरे चाँद को ढूंढकर -
- उससे पहरों बातें करता हूँ !
पर, वह तो बस बेबस - सा -
- मुझे एकटक देखता रहता है ,
कहता कुछ भी नहीं  ... !

तुमने चाँद से साँठ - गाँठ कर ली है -
- झूठ कहा था क्या ?

तुमने कहा था कि -
- मैं तुम्हारे सामने न भी रहूँ -
- आँख - मिचौनी खेलूँ -
बिना बताये कहीं छिप जाऊँ -
- तो तुम मुझे ढूंढ निकलोगे !
पर सुनो !
एक उम्र गुज़र गयी है -
मैं तुम्हारे सामने नहीं हूँ -
मीलों दूर कहीं अलग - थलग पड़ा हूँ -
भीड़ में गुम हुआ जा रहा हूँ  ...
पर तुम तो मुझे एक बार भी नहीं ढूंढ पाए !

तुम मुझे मेरी खुशबू से पहचान लोगे -
- झूठ कहा था क्या ?

तुमने तो यह भी कहा था, कई बार -
- मैं कहीं भी आऊँ, कहीं भी जाऊँ -
- तुम मेरे साथ - साथ साये से चलोगे,
 और जब भी नज़र घुमाऊंगा -
- तुम्हे पाऊंगा !
पर सुनो !
मैं कई सफ़र तय कर चुका हूँ -
कई दरिया, कई पहाड़ लाँघ चुका हूँ -
और अपने हर कदम के साथ -
- चारों ओर बिखरे चेहरों में -
- शून्य में, विस्तार में -
- चल में, अचल में -
मैंने तुम्हारा चेहरा खोजा है -
- पर तुम तो कहीं नज़र नहीं आये !

आँखों में कैद सलिल से साथ रहोगे हमेशा -
- झूठ कहा था क्या ?

चलो, अब बहुत झूठ हुआ !
कह दो, हर याद झूठ है !
चाँद से साझेदारी झूठ है !
मेरी खुशबू झूठ है !
आँखों में पलता नीर झूठ है !

सुनो,
अब एक बार तो सच कह ही डालो !