Saturday 8 April 2017

Strings yet attached!



Reminiscences from my diary

Apr 5, 2017
10 pm
In flight from Delhi to Bangalore


बरस बीत गए हैं तुम्हे गए हुए,
पर न जाने कैसी गिरहों में -
- तुम मुझे बाँध गए कि -
आज तक, उनसे मेरी -
- रिहाई नहीं हुई !

जितनी कोशिश, जितनी जद्दोजहत -
करता हूँ -
इन गिरहों को सुलझाने की -
उतना ही उलझता चला जाता हूँ !
इन धागों का -
- या तो कोई अंत नहीं है,
और अगर है, तो शायद -
- तुम पर है !

शायद इन गिरहों के ओर - छोर -
- तुम्हारी उँगलियों में कसे हुए हैं !
जितनी ही दूर -
- तुम जाते जा रहे हो,
ये धागे मुझे उतना ही -
- कसते जा रहे हैं !

जाते - जाते, कहीं तुम -
- इन गिरहों में -
कोई अफसून तो नहीं फूँक गए थे ?
लगता तो यही है जैसे -
- तुमने मुझे बांधकर -
- अपना बदला लिया हो !
तुम्हारे साथ चलने के लिए मना कर देने का -
- बदला !
तुम्हे अकेले सात - समुन्दर पार जाने देने का -
- बदला !
तुम्हे बीच मझदार में छोड़ देने का -
- बदला !

हाँ ! यही बात है , लगता है  ...
खैर  ...
अब तुम नहीं हो !
हैं, तो बस ये गिरहें -
मेरी रूह को कसते ये धागे -
जो मेरी ज़िस्त से रु-ब-रु कराती -
- हर सांस के साथ -
एहसास दिलाते हैं -
तुम्हारे होने का भी -
तुम्हारी न होने का भी !