Friday 31 August 2018

You, while in Bhutan!



Reminiscences from my diary
Apr 1, 2018
Sunday 06:30 PM
Paro, Bhutan


याद है, एक बार सोचा था कि एक अलग - सी डायरी बनाऊँगा, जिसमें सिर्फ़ ख़त होंगे तुम्हारे नाम पर, तुम्हें लिखे हुए ! पिछले साल की  बात है शायद ! पर जानते हो न ! उस अलग - सी डायरी में सिर्फ़  एक ही ख़त लिख पाया ! मेरा ख़्याल है, कुछ आठ नौ पन्नों की चिट्ठी होगी ! बाकी डायरी तो यूँ ही कोरी - सी पड़ी है ! पहले अच्छा नहीं लगता था ! कहाँ तो मैंने सोचा था कि हर महीने तुम्हें एक ख़त लिखकर उसे डायरी के पते पर भेज दूँगा और उम्र के कहीं किसी मोड़ पर तुम तक पहुँचा दूँगा और कहाँ बात सिर्फ़ एक ही चिट्ठी तक रह गई ! हर मौसम की एक चिट्ठी तो लिखी होती ! यही सोच रहा था और यही सोचकर बुरा लग रहा था ! पर तभी एक दूसरी सोच ने पहली सोच को धक्का दिया ! भले ही उस डायरी के सभी पन्ने न रंगे हों  ... भले ही चिट्ठी जैसा कुछ न लिखा हो  ... पर जानते हो न कि मैंने जब से लिखना शुरू किया है, सब कुछ तुम पर, तुम्हारे इर्द - गिर्द या तुमसे ही प्रेरणा पाकर लिखा है ! अब देखो न ! शहर से दूर इस अलग देश की अलग मिट्टी को अनुभव करते हुए मैंने पल पल हर पल अपने साथ तुम्हें महसूस किया है !

फुंसोलिंग से थिम्पू का वह रास्ता जहाँ कभी धूप खिली देखी तो कभी तेज़ बरसात ने तर किया, जहाँ कभी बादलों को चीरा, तो कभी खुद को पहाड़ों की धुंध में खोया - मैंने मौसम के हर मिजाज़ में तुम्हें अपनी बगल में बैठा मुझसे बातें करता पाया ! जब खिड़की के शीशे से अपना दायाँ हाथ बाहर निकाला हुआ था, तब उस हाथ पर पड़ती गुनगुनाती धूप में तुम ही तो थे; और जब चिलचिलाती बर्फ़-सा पानी बारिश की बूँदों में ढलकर मेरे नाखूनों को छूकर मेरी हथेली की लकीरों से होते हुए सरककर मेरी बाँह को कँपा रहा था, तब भी तुम थे! हाँ, तुम ही थे !

भूटान की थिम्पू घाटी पर जब पाँव रखा था, तो लगा था जैसे मेरे साथ साथ तुम भी रोमांच से कूद पड़े हो ! पता है, जब सुन्दर थिम्पू की सुन्दर ढलान वाली कभी संकरी तो कभी चौड़ी सड़कों पर चल रहा था, तो लगता कभी तुम मेरे दाएँ चल रहे हो, तो कभी बाएँ, तो कभी मैं आगे - आगे और तुम मेरे पीछे पीछे ! कभी ऐसा भी लगा जैसे तुम भागते भागते आगे निकल गए हो और पीछे मुड़कर मुझे हाँफता हुआ देखकर हमेशा की तरह मंद-मंद मुस्कुरा रहे हो ! मुस्कुराने से याद आया - याद है, कैसे मैं तुम्हारे दोनों गालों को खींचता और तुम्हारा वह ऊपर वाला दाँत दिखने लग जाता था जिसके अस्तित्व के बारे में तुम्हारे जानने वालों में से आधों को तो पता भी नहीं होगा ! तुम्हारी उस दन्त-पंक्ति वाली लम्बी मुस्कराहट पर क्या निछावर करूँ, मैं भी नहीं जानता !

खैर  ... मैं तुम्हें यह बता रहा था कि सात समुन्दर दूर होते हुए भी कैसे मेरे इस सफ़र में तुम मेरे साथ रहे हो ! परसों जब बुद्ध की उस विशालकाय सुनहरी प्रतिमा के आगे मैं नतमस्तक हुआ तो तुम भी तो मेरे साथ ही झुके थे! है न ! खून जमाती उस ठंडी हवा में जब मेरे दांत किटकिटा रहे थे और मेरा शॉल उड़ा-उड़ा जा रहा था, तब तुम ही तो थे जिसने मेरा ठंडा हाथ अपनी गरम जैकेट की जेब में डाल लिया था और हमेशा की तरह गरम सूप पीने की ज़िद करने लगे थे ! बुद्ध के सामने उन सीढ़ियों पर बैठकर हमने ढेरों ढेर बातें की ! यकीन न आये तो पूछ लेना सामने पहाड़ों में यहाँ - वहाँ  निकलती  'गंगाओं' से या फिर दूर नीचे घाटी में बिखरे थिम्पू से ! तुमसे की गयी गुफ़्तगू के कतरे बुद्ध के चारों और छोड़ कर आया हूँ !

अगर कल की ही बात करूँ तो पुनाखा ज़ॉन्ग में पाँव हमने साथ ही तो रखे थे, वैसे ही जैसे हमेशा शिवरात्रि की सुबह दूध और बेलपत्र चढ़ाने के लिए गुरद्वारे के रास्ते में आते मंदिर के गर्भगृह में रखते थे ! प्रवेश द्वार से लेकर अंदर मंदिर को जोड़ने वाले उस छोटे से लकड़ी के पुल पर एक ओर तुम खड़े थे, एक ओर मैं और कैसे हम दोनों ही नीचे नदी में खेलती मछलियों के झुंडों को देख रहे थे ! इस मंदिर को सुशोभित करती सुनहरे बुद्ध से भी बड़ी वह प्रतिमा कैसा मोहित कर रही थी हमें ! अच्छा, जब पांच मिनट की साधना के लिए मैंने आँखें बंद की थी, तब तुम भी एकदम ध्यान में डूब गए थे न !कैसे अपनी सुध - बुध खो बैठे थे हम ! और वह तालाब याद है तुम्हें ? वही जो मंदिर के दरवाज़े से निकलकर दो और दरवाज़ों को पार कर एक बहुत ही शांत जगह पर है ! तुम्हें ऐसी जगहें बहुत पसंद हैं, जानता हूँ - शायद इसलिए कुछ देर अकेला बैठा रहा - यह सोचकर कि अमूर्त रूप में, अप्रत्यक्ष रूप में तुम भी मेरे साथ बैठे हो !

कल मैंने तुम्हें सबसे ज़्यादा 'सस्पेंशन - ब्रिज' लांघते समय महसूस किया ! नीचे  ... काफ़ी नीचे उथली पर पत्थरों को चीरती नदी  ... हरी - नीली लहरें  ... ऊपर लोहे की रस्सियों से बँधा पुल  ... पुल पर बँधे सैकड़ों रंग - बिरंगे झंडे  ... उन झंडों पर यहाँ की लिपि में रचे मन्त्र  ... उन मन्त्रों को पूरे वेग से अपने साथ उड़ाने की कोशिश करती ठंडी बयार  ... और उस बयार में अपने छोटे बालों को उड़ाने का असफल प्रयास करते पुल के दूसरे छोर पर खड़े तुम ! उस दौरान मैंने यहाँ के हर बुद्ध से प्रार्थना की थी कि काश ! वक़्त की नब्ज़ थम जाए और इस छोटी - सी नदी पर बने इस सेतु को पार करते ही सात समुन्दर पार की दूरी मिट जाए !

आज भी तो तुम मेरे साथ ही हो - यहाँ चारों ओर पहाड़ों से घिरे, पारो शहर से दूर, इस छोटे - से सुन्दर कमरे में ! मैं खिड़की की मुंडेर पर बैठकर यह सब लिख रहा हूँ और हमेशा की तरह तुम मुझे बिना कुछ कहे बस देखे जा रहे हो ! देखना ही है तो सामने सफ़ेद चमकते पहाड़ों को भी तो देखो ! लग रहा है जैसे इस समय वहाँ बर्फ़ गिर रही है ! देखना ही है तो बाईं ओर बहती नदी को भी देखो ! देखो, कैसे रास्ते में आते हर छोटे - बड़े पत्थर पर पानी उछल - उछलकर बिखर रहा है ! देखना ही है तो देखो - कैसे मैं कहीं भी आऊँ, कहीं भी जाऊँ तो कैसे तुम्हारी स्मृति मेरी तड़प बन जाती है ! 

एक बात बताना जब भी फ़ुर्सत मिले ! क्या कभी तुमने भी मुझे महसूस किया है यूँ ही, गाहे - बगाहे ?





Saturday 25 August 2018


Annihilation


Reminiscences from my diary

Aug 19, 2018
Sunday, 02:00 AM
In Flight to Kuala Lumpur


एक समय आता है, जब -
रेशों में वजह - बेवजह पलता
दर्द
पशमीने - सा हो जाता है !
रेशे - रेशे को -
- कैवल्य मिल जाता है, तब !

***

एक समय आता है, जब -
पीड़ा की वाणी -
- सिंधु - सी हो जाती है !
शांत होते हुए भी -
एक बड़वानल पलता है, तब !
एक झंझानल पलता है, तब !

***

एक समय आता है, जब -
वेदनाओं का समूह
रचता है प्रपंच, इंद्र सा !
किसी राम की प्रतीक्षा में
हृदय
अहिल्या हो जाता है, तब !

***

एक समय आता है, जब -
नाड़ी - संहिता में यहाँ - वहाँ बिखरी -
टीस
लहू क साथ छोड़
आँखों में पलते नीर से जा मिलती है !
अनवरत बरसात होती है, तब !