Saturday 7 December 2019

... yet another piece!


Reminiscences from my diary

Dec 07, 2019
Saturday 10:45 pm
Murugeshpalya, Bangalore


"हृदय में धँसा स्मृतियों का ध्वस्त प्राचीर
उस प्राचीर के यहाँ - वहाँ बिखरे अवशेष
उन अवशेषों की नींव से निकले वीरान अरण्य
और
उन अरण्यों में दबी - घुटी - मरी घोर चीत्कारें ...
... इन सबकी कोई थाह नहीं
और यदि है तो,
उस थाह का -
कोई मानदंड, कोई समीकरण नहीं  ...."

तुमने वही कहा जो तुमने माना या -
मानना चाहा !
तुमने वही माना जो तुमने जिया या -
जीना चाहा !

मैंने कभी तुम्हारे आगे बढ़ते तेज़ कदमों को देखा
तो कभी
शून्य में घुलते शून्य को !

फिर -
जाते हुए तुम की ओर पीठ की -
कलम छिटकाया -
मुस्काया -
सकुचाया -
घबराया -
और -
एक नई कविता लिखने बैठ गया !



Tuesday 12 November 2019

Intricacies


Reminiscences from my diary

June 03, 2019
Monday, 06:00 pm
In flight to Bangalore


जब - जब तुम साथ नहीं होते हो,
तब - तब, तुम -
असल में -
बहुत करीब होते हो !
वहीं दूसरी तरफ -
जब - जब तुम सामने होते हो -
या तुमसे बात होती है -
तब - तब लगता है कि -
तुम, तुम नहीं हो !
कोई और हो, असल में !

कई मर्तबा सोचा है, समझने की -
- आधी - अधूरी कोशिश भी की है -
क्या वह 'तुम', जिसे मैं -
- अपने बहुत करीब पाता हूँ -
उस 'तुम' से वाकई अलग है -
- जिसकी तस्वीर या जिसकी आवाज़ -
- मैं
- यूँ ही
- गाहे बगाहे
कभी सुन लेता हूँ, कभी देख लेता हूँ ?

काश मैं यह सवाल
तुमसे पूछ पाता !
काश मैं यह उलझन
तुमसे साझा कर पाता !

ये बरस, जो मैंने -
तुम्हारे होते हुए भी -
तुम्हारे बिना -
तुम्हारी तड़प में बिताए हैं -
और -
तुम्हारे न होते हुए भी -
अपनी रिक्तता में -
तुम्हें घोला है -
बस, यही बरस -
हाँ, यही बरस मेरे सगे हैं !

तुम्हें इन बरसों के बारे में बताऊँगा, तो शायद -
पागल करार दिया जाऊँगा !
यूँ भी तुम, शायद -
अपने होने से जूझ रहे हो !
शायद तुम खुद को पहचानने की मशक्कत में -
- तार - तार उलझे हो !

तुम्हें एक और सवाल से -
तुम्हें मुझसे -
तुम्हें तुमसे -
रु- ब- रु कराऊँ भी तो कैसे ?



Thursday 10 October 2019

Siesta Yours, Colors Mine!


Reminiscences from my diary

Oct 10, 2019
Thursday 08:40 PM
Murugeshpalya, Bangalore


सुनो - मेरे पास  ऊन के गोले हैं
ढेर सारे
और रंग भी अलग - अलग
जो चाहो, वही मिल जायेगा

आसमानी
गेहुँआ
सिन्दूरी
कत्थई

आओ - तुम्हारी नींदें बुनूँ
बताओ - कौन - सा रंग चुनूँ
चाहो तो सारी नींदें एक ही रंग की
चाहो तो रंग - बिरंगी

जामुनी
सुर्ख
पीली
सलेटी

अगर चाहो किसी सपने को अलग से टांकना
तो रंग बता दो अभी
आसानी होगी
सिलाई भरने में

धूसर
गुलाबी
जैतूनी
टकसाल

जान लो -
इस ऊन का रेशा - रेशा
मेरे रोम - रोम का उन्स है
अलाव - सी गर्माहट मिलेगी तुम्हें
कैसा भी हिमपात हो
मौसमी
बारहमासी
कैसा भी
तुम्हारा कोई भी ख़्वाब कभी
ठिठुरेगा नहीं

अब बताओ भी
ज़्यादा मत सोचो
ऐसा न हो कि सोचते - सोचते
एक बार फिर भोर हो जाये !


Wednesday 11 September 2019

Bermuda in my bottle


Reminiscences from my diary

Tuesday Sep 11, 2019
00:10 am
Murugeshpalya, Bangalore


मैं रोज़ रात
सोने से पहले
कुछ घूँट पानी ज़रूर पीता हूँ
और काँच की इस पुरानी बोतल को
होंठ लगाने से पहले
मैं बत्ती बुझाना नहीं भूलता

रोशनी की बनिस्बत
अँधेरे में पानी पीना
एक तो
मेरी प्यास को
ज़्यादा सुकून पहुँचाता है
और दूसरा
काँच में कैद बरमूडा में
डूबने का खतरा
दूर घर के किसी कोने में छिप जाता है
अगली साँझ फिर लौटकर आने के लिए  ...


Tuesday 2 July 2019


... while running away to the oblivion


Reminiscences from my diary

July 01, 2019
05:15 pm
GS, 150 ORR, Bangalore.


जितना भी मुझे याद है
वह न पूरी शाम थी,
न पूरी रात !
पता नहीं, घड़ी के डायल में
छोटी सुई कहाँ थी, बड़ी कहाँ !
वह वक़्त, उस वक़्त का होना
दर्ज़ था भी या नहीं, नहीं जानता !
बस -
एक बदहवासी थी
एक घुटन
एक उमस, मानो -
फेफड़ों में साँस ले रहा हो कोई थार
या कोई हिमालय !

और मैं ...
मैं बस भाग रहा था
ऊबड़ - खाबड़ सड़क के दायीं ओर
ऊबड़ - खाबड़ फुटपाथ पर
बेतहाशा भाग रहा था !

शायद कहीं दूर को जाती
आखिरी गाड़ी
स्टेशन छोड़ने वाली थी
या फिर -
सड़क के छोर पर
कोई मुद्दत से इंतज़ार करते - करते
थकता जा रहा था
हो सकता है -
कल्पों का उधार वसूलने कोई
पीछा करते - करते
बहुत करीब आ गया था !

वजह कुछ भी हो सकती है !
मैं नहीं जानता !
मैं जान ही नहीं पाया !
पर एक बात, एक लम्हा याद है !
ठीक से याद है !

जब मैं अपनी सुध - बुध खोया
पत्थर - पत्थर
नुक्कड़ - नुक्कड़
दर-दर लाँघ रहा था तो -
अचानक से ही
सामने से आते तुम टकरा गए थे, और
टकरा गयी थी आँखें -
तुम्हारी और मेरी !

क्या आकाशगंगा में तारे भी
ऐसे ही
टूट जाया करते हैं - अचानक ?

मेरे चेहरे से
कितनी ही ख़ारी बूँदें
छिटक गयीं थीं
तुम्हारी कमीज़ की बायीं आस्तीन पर
शायद !

पर मैं
अभी भी हैरान हूँ यह सोचकर कि -
तुम्हारा चेहरा अचानक से सामने आने पर भी -
मैं चौंका क्यों नहीं !
मेरे पाँव थमे क्यों नहीं !
मैं फिर भी भागता ही क्यों रहा !

तुमने -
पीछे मुड़कर मुझे देखा या नहीं, पता नहीं !
मुझे देखकर अपना रास्ता बदला या नहीं, पता नहीं !
मेरा पीछा किया या नहीं, पता नहीं !
मेरा नाम याद करने की कोशिश की या नहीं, पता नहीं !
और 'गर नाम याद आया तो मुझे पुकारा या नहीं, पता नहीं !

लेकिन जो पता है, वह यह कि -
आँख खुलने पर
एक बार फिर
तुम्हारा होकर भी न होना, और
तुम्हारा न होकर भी होना
मेरी दिन भर की
मेरी उम्र भर की
कसक बन गया !



Thursday 16 May 2019

My blood, red!

Reminiscences from my diary

May 16, 2019
Thursday, 7 pm
Murugeshpalya, Bangalore


स्ट्रीट लाइट को लाल से हरा होता देखते - देखते
और ज़ेबरा - क्रॉसिंग पर चलते - चलते
मेरा बायाँ हाथ
एक दुनिया समाये -
- बाएँ काँधे झूलते बस्ते में
दस का नोट टटोल रहा था !

अचानक ही कुछ चुभा !
कुछ नुकीला, कुछ पैना !
हाथ बाहर निकाला तो देखा -
तर्जनी के नाखून के पास
खून चमक आया था !
एकाध कोशिका लहूलुहान हुई थी शायद !
दर्द हुआ भी और नहीं भी !

आज मुद्दत बाद मैंने अपना खून चखा !

बस्ते में झाँका तो पाया -
कॉम्बिफ्लेम के पत्ते का कोना अभी भी घूर रहा था !
चौदह में से -
- तेरह गोलियों से खाली वह पत्ता
वापिस बस्ते में इसलिए डाल दिया कि
आज नहीं तो कल, वक़्त - बेवक़्त,
मुझे इसकी ज़रुरत पड़ेगी ही !

गुलमोहर के गलीचे नापते नापते
सोच रहा हूँ -
कैसे एक कतरे लहू से
एक किस्सा, एक कविता, एक पल उपज जाते हैं !





Monday 22 April 2019

Salvation from the colors!

Reminiscences from my diary

Apr 22, 2019
Monday, 10:00 pm
Murugeshpalya, Bangalore


पता है तुम्हें ? घर के सामने जाती, या सामने से आती गली में करीब आठ से दस पेड़ हैं।  पर गली को सही मायनों में रंगीन बनाने का दायित्व उनमें से दो पर है - कनेर और गुलमोहर  ... पीला कनेर और केसरी गुलमोहर ... गुलमोहर के सामने कनेर और  कनेर के सामने गलमोहर  ... छोटा कनेर और छोटे से थोड़ा बड़ा गुलमोहर !

कब वसंत बीता, कब निदाघ ने सहसा प्रहार किया, पता ही नहीं चला ! यूँ भी बड़े शहरों की चकाचौंध में मौसम जैसी छोटी बातों पर अमूनन ध्यान नहीं जाता ! इन दिनों बाज़ार में अफ़रा - तफ़री है कि सावन चौखट लाँघने ही वाला है ! शायद, इसी लिए शामें सुन्दर हो चली हैं।  सूरज की पिघलती सिन्दूरी और बालों को सहलाती बयार आजकल गोधूलि का शृंगार करती हैं।  लेकिन, मेरी शामों की सुंदरता की इकाई में असंख्य शून्य जड़ जाते हैं पीले कनेर और केसरी गुलमोहर के गलीचे !

जब भी कभी एक हाथ से गिरे कनेर को और दूसरे से गुलमोहर के फूल को उठाता हूँ तो एक पल लगता है मानो ईश्वर की सर्वाधिक सुन्दर कृतियों में से दो मेरे हाथों में है  ... मानो मेरे नाखूनों के पास की कोशिकाओं को कुछ पीला, कुछ लाल करने के लिए ही ये फूल ज़मीन पर गिरे हैं  ... मानो अगर मैं शिव की ग्रीवा से वंचित इन फूलों का स्पर्श न करूँ तो मेरे दिन को कैवल्य न मिले ! और जब - जब इन फूलों को उठाता हूँ और उठाने के बाद ऊपर फैली शाखाओं को देखता हूँ तो बूझने लग जाता हूँ उस शाखा को जिसने इनको खुद से अलग कर दिया !

... और तब, तब एक गवाक्ष खुलता है  ...  मस्तिष्क में या हृदय में, पता नहीं  ... जहाँ से मैं खोजने लग जाता हूँ निस्संगता को, निस्संगता के अर्थ को, शाब्दिक अर्थ को, व्यावहारिक अर्थ को  ... और कब निस्संगता के दर्शन का ताना - बाना मेरी श्वास पर हावी होने लग जाता है, मैं जान नहीं पाता !

खैर, दम घुटने की लत सी लग गयी है, तुम तो जानते ही हो ! वैसे एक बात और जान लो  ...

... कुछ समय बाद ही मुझे ये फूल अच्छे नहीं लगते, सुन्दर नहीं लगते ! घर आकर जब यह पीला और यह लाल- सा रंग अपनी उँगलियों से छुड़ाने के लिए पानी का सहारा लेता हूँ, तो कुछ कोशिश, कुछ समय लगता है रंग को पानी में घुलने में... कुछ समय लगता है रंग को मेरे हाथ से छूटने में...

... और उस कुछ समय के अंतराल में मुझे वे गुलमोहर कौंधा जाते हैं जो तुमने मेरी हथेलियों पर मसले थे ! जानता हूँ और मानता भी हूँ कि बीहड़ों में फूलों के अंजुमन की एक झलक भी भगीरथ को मिली मुक्ति - सी होती है ! पर अंततः बीहड़ बीहड़ होता है ! अपने रंगों को निगलने का श्राप है उस पर !

सुनो... !

तुम भी इस श्राप से डरो ! मेरी हथेलियों पर जमा तुम्हारे गुलमोहरों का रंग कांच हो चला है ! दो विकल्प देता हूँ तुम्हें - या तो अपना रंग मुझसे छुड़ा ले जाओ, अपने साथ बहा ले जाओ , या फिर मुझे मेरी हथेलियों से रिहाई दे दो !

जान लो कि तुम्हारे ऐसा करने पर ही मैं बूझ पाऊँगा उस टहनी को जहाँ से गिरा पीला कनेर या केसरी गुलमोहर मेरी उँगलियों पर खुद को हमेशा के लिए छोड़ जाता है  ... !


Monday 8 April 2019

Nainital


Reminiscences from my diary

March 17, 2019
11:30 pm
Blessings Home-stay, Nainital


कुछ किताबें हिंदी की
अंग्रेज़ी की भी, कुछ से ज़्यादा , शायद
और सामने की दीवार पर मकड़जाल ताकता
मोठे चश्मे वाला कुबड़ा मालिक !

***

पार्किंग के पास बड़ी, पुरानी मस्जिद
मस्जिद से थोड़ी आगे गुरुद्वारा
फिर कुछ और कदम आगे नैनी का प्राचीन मंदिर
और दूर से इन तीनों की कतार ताकता एक बूढ़ा भिखारी !

***

माल रोड के भव्य, पाँच सितारा - से रेस्टॉरेंट
बड़े - बड़े तवों पर सकते पनीर के पूड़े, आलू की टिक्कियाँ
गर्मागरम चाय और कॉफ़ी की मशीनें, और दूर -
पत्थर पर बैठा, मूँगफलियाँ बेचता एक भूखा मुल्लाह !

***

साँझ के फाहों से छनकर आती लाल रोशनी
पानी में तिरते दिखते चीड़
रंगीन फूलों की छोटी - बड़ी क्यारियाँ
उनसे रंगों की ही होड़ करता कूड़े का एक ढेर !

***

एक और सफ़र तुम्हारे साथ
एक और सफर तुम्हारे बिना
और हर सफर की तरह ही
अजनबी चेहरों में मिलते - खोते, खोते - मिलते तुम !

***




The Labyrinth


Reminiscences from my diary

Apr 08, 2019
11:50 pm
Murugeshpalya, Bangalore


मैं अक्सर दूर रहता हूँ
बहुत अजनबियों से ही नहीं
बहुत अपनों से भी !
अपेक्षाएँ दोनों को हैं या हो सकती हैं !
अपेक्षाएँ दोनों से हैं या हो सकती हैं !
एक उम्मीद से कई निराशाएँ उपज जाती हैं अक्सर !
और फिर, उम्मीदों के ताने - बाने को -
- तार - तार करते हैं -
हताशाओं के कुलाबे !

सुनो !
घने बीहड़ों में पलते घने मकड़जालों में -
कभी - कभी
साँस भी रुक जाया करती है !


Saturday 9 March 2019




Masks


Reminiscences from my diary
March 8, 2019
2: 45 PM
In flight from Bangalore to Delhi


उम्र शायद तीस से पैंतीस के बीच होगी,  या हो सकता है,  पैंतीस से चालीस के बीच हो!  गहरा गेहुँआ रंग!  बेहद साधारण पतली छरहरी काया! पतली काया की पतली बाईं कलाई पर बँधा पतला सफ़ेद धागा! हरे,  मौसमी और सुनहरे रंगों से रंगी सादी साड़ी!  तेल लगे काले बालों को कमर तक लाती एक गूँथ!  और,  दो आँखें!  दो बेहद शांत आँखें!  बेहद शांत और उदास आँखें!  शायद घबराहट,  या फिर कौतुहूल, या फिर कोई याद!  आँखें यूँ ही तो उदास नहीं होतीं!  कुछ तो बात है! यूँ तो वह मुझसे दूर नहीं बैठी हैं,  आगे वाली पंक्ति की मध्य सीट ही है और मैं देख पा रहा हूँ कनखियों से उन मौन आँखों को,  मौन अधरों को,  मौन चेहरे को,  और चेहरे पर धीरे - धीरे उम्र से सांठ - गांठ करती मौन झुर्रियों को!

क्या यह पहली हवाई उड़ान है? या पहली बार बंगलौर से दिल्ली आ रही हैं? या दिल्ली की भीड़ की देहशत?  या पति से लड़ाई हुई है?  या कल जो होने वाला है,  उसकी चिंता? क्या मामला पैसों का,  लेन - देन का है? या फिर कोई बच्चा बीमार है? हो सकता है खुद की तबियत ही खराब हो?  या फिर मायके की स्मृति डंक मार रही हो?  क्या पता बादलों से गुज़रते हुए कोई बिसरी या बिसराई ख़्वाहिश आँख के पानी में तैर गई हो?

ज़हन में कितने सवाल पर जानता हूँ कि जवाब नहीं पा सकूँगा इनका! जो बात जानता हूँ वह यह है कि ये आँखें उत्साह या रोमांच की तो नहीं हैं! और हों भी कैसे जब अगल - बगल,  दाएँ - बाएँ,  आगे - पीछे, हम जैसे सभ्य,  शहरी लोगों की जमात हो! अपने में डूबे - से,  और शायद इसी लिए, सूखे - से! यह ज़रूर ही उपेक्षा झेलती आँखें हैं! हाँ!  यही बात है! 'एयर - कंडीशन्ड एयरपोर्ट' से लेकर 'एयर - कंडीशंड इंडिगो' की सीट तक का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा इनका! अंग्रेज़ी न आती हो ; भागती,  बेतहाशा - भागती भीड़ में अगर एक पल रुककर सामने वाले से कुछ पूछना चाहें और जल्दबाज़ी में दिया गया सामने वाले का जवाब (अगर दिया गया तो) समझ न आने पर दोबारा पूछा जाए ; आस पास बिखरी 'मॉडर्न',  'सॉफिस्टिकेटेड' तकनीकि को समझने में,  चीजों को समझने में,  लोगों को समझने में यदि पाँच सेकंड से ज़्यादा वक़्त लग जाए,  तो शायद गुनाहगारों की सूचि में हम पहले स्थान पर आ जायेंगे और इन भागते - दौड़ते 'सभ्य', 'आधुनिक' लोगों का बस चले तो देश निकाला दे दें ऐसा गुनाह करने वालों को!

लग रहा है कि आज एक बार नहीं,  कई बार ऐसे व्यस्य,  सभ्य लोगों के कोप का भाजन बनी है यह महिला! दुःखद विरोधाभास तो यह है कि यही 'कल्चर्ड' लोग 'फेसबुक' या अन्य सामाजिक और व्यावहरिक स्थानों पर आज 'महिला दिवस की शुभकामनाएँ ले दे रहे होंगे!

मुखौटे!  चारों ओर मुखौटे! और जो इन मुखौटों को न समझे - उनकी उपेक्षा,  उनका बहिष्कार! 

होना तो यह चाहिए था कि आज इस सीधी - सादी स्त्री का दिन सुंदर होता,  सुखद यादगार होता!  वजह भी तो हैं - एक नहीं,  दो! महिला दिवस पर, तीन सौ पैंसठ दिनों में कम से कम एक दिन पर,  औपचारिक ही सही,  पर सम्मान!  बिना किसी भेदभाव के सम्मान!  और पहली उड़ान है तो अनौपचारिक रूप से शुभकामना!

औरों का नहीं पता,  पर अपने सीमित अनुभव से यह जाना है कि एक अति साधारण मध्यम वर्ग के लिए पहली हवाई यात्रा और उसके मायने बेहद ख़ास होते हैं और इस बात को समझना इतना कठिन भी तो नहीं है!

दिल्ली आ गया है! यही कामना करूँगा कि उन आँखों की उदासीनता इस सफ़र के साथ ही समाप्त हो जाए और पहली उड़ान के रोमांच को अपना गंतव्य मिल जाए!

(This piece was written while travelling to Delhi in Indigo after witnessing the cold and discriminating behavior of an arrogant air hostess towards a simple, presumably,  a homemaker lady from South Indian sub-urbs)

Thursday 28 February 2019

Everything but name!


Reminiscences from my diary

March 01, 2019
Friday 12:15 AM
Murugeshpalya, Bangalore


एक अजीब - सा वाक़या हुआ आज !
आज, यूँ ही -
बैठे - बैठे, काम करते - करते -
और बीच - बीच में -
पारदर्शी कांच के उस ओर पसरी धूप देखते देखते -
एक दोस्त -
एक पुराना, बहुत अच्छा दोस्त -
याद आ गया, अचानक !

साथ ही याद आ गया याद -
उसका चेहरा
और उसकी हँसी -
और उसके अजीबोगरीब बाल -
और उसका दिन - दिन बदलता चश्मा -
और कागज़ की जुगाली करने की उसकी आदत -
और उसकी सादगी -
और उसके साथ साझा किया खुशनुमा वक़्त -
और उस वक़्त की कई इकाइयाँ !
सब याद आ गए !

पर ...
साँझ बीतने तक भी -
जो नहीं आया याद -
वह था उसका नाम !





You!  The unholy spring! 


Reminiscences from my diary
Feb 15, 2019
4 PM
GS,  CD,  Bangalore

तुम्हें हमेशा शिकायत रही है,  शायद!
क्यों? हमेशा हेमंत और सावन ही क्यों?
क्यों मेरी लेखनी को -
मौसमों की बिरादरी में,  महीनों की सूची में -
आषाढ़,  भादो या मार्गशीष अज़ीज़ हैं?

क्यों मेरी अनगढ़ कविताओं में -
आमूनन -
सावन का सलिल -
कभी किसी रात -
मेरे मनी प्लांट पर ठहरा मिलता है,  तो कभी -
खिड़की की टूटी जाली से मेरे कमरे में झाँकता मिलता है!
कभी - कभी -
मेरे ऑफिस के पारदर्शी काँच पर साँप सा रेंगता मिलता है,  तो कभी -
किसी गौधूलि,  टीन की छत पर धम् धम करता मिलता है!

सर्दी की बात करूँ तो -
क्यों हर बनते बिगड़ते गद्य में,  कहानी में,  संस्मरण में -
दिसंबर का महीना कहीं न कहीं छिपा-
आंच पाने की कोशिश करता है?
कभी अल्मोड़ा की धूप सेंकते त्रिशूल से,  तो कभी -
हिमालय में बिखरे भूटान से!
कभी एलपूज़ा के पानी में  डूबते सूरज से,  तो कभी -
मनाली को और सफ़ेद बनाते पूरनमासी चाँद से?

इन सबके बीच कभी तुम्हारा ज़िक्र नहीं करता - यही शिकायत है न तुम्हारी?

तुम्हें ही नहीं,  कहीं न कहीं,  मुझे भी -
कई बार लगा है ऐसा!
मैंने भी सोचा,  कभी किसी पल -
मैं भी निराला बनने का प्रयास करूँ,  या फिर -
शिवानी की कृष्णकली को,  फिर से,  तुम्हारे इर्द गिर्द् बुनूँ!

अभी यह ख़याल गहरा ही रहा था, और -
मेरी नीली स्याही में तुम्हारे सभी रंग घुलने ही वाले थे कि -
जाने क्या हुआ तुम्हें -
मुझे बयालीस अलग अलग नाम, और-
बयालीस अलग - अलग शक्ल देकर -
बयालीस बार चीथड़ा - चीथड़ा कर दिया!

जब तुमने ऐसा किया,  तो कई तस्वीरें उभरीं -
मेरे तार - तार होते ज़हन में -
गांधी की
जिन्नाह की
अरुंधति की
रुश्दी की
सही की
गलत की
सत्य की
असत्य की
पर हर तस्वीर मौन थी!
मौन या मूक,  पता नहीं!
पर सब देख रहे थे -
मुझे -
और मेरे बयालीस कटे - फटे शरीरों से अलग होती -
तड़पती -
बिलखती -
दम तोड़ती रूह को!

वसंत!
ऋतुराज वसंत!
सुनो!
रंगीन मौसम होने का तकाज़ा -
यह तो नहीं होना चाहिए था कि -
लाल गुलाब की जगह लाल लहू से -
तुम अपनी लाली चुनो!

कलंक है,  कलंक!
श्राप!
बयालीस आत्माओं का श्राप!
बुलाओ किसी मुक्तिदूत को -
किसी बुद्ध को,  कृष्ण को,  या यम को -
हो जिसके पास -
इस श्राप के निवारण का कोई उपाय!

Wednesday 6 February 2019

The last exam, Reminiscences - 5


Reminiscences from my diary
July 31, 2011
Bangalore, 2 AM


27 मई 2011 की उस आखिरी परीक्षा के लिए -
हमेशा की तरह देर होने के कारण -
जल्दी - जल्दी तैयार होते होते -
नज़र पड़ गयी थी सलिल पर !
इंतज़ार कर रहा था हमेशा की तरह -
चुप चाप -
दीवार के सहारे खड़ा हुआ -
सफ़ेद - लाल चैक की कमीज़ -
बाहर निकली हुई -
कंधे पर वही नीला बैग -
बस एकटक निहारे जा रहा था मुझे  ..
और मैं -
नज़रें चुरा रहा था उससे  ...
आँखें भरी हुई थी मेरी !
आखिरी एक्ज़ाम था वह -
- जो हम साथ देने जा रहे थे !
वह नमी, वे आँसू , वह इंतज़ार -
वही A - हॉस्टल के A 118 के दरवाज़े पर -
- छूट गए हैं !
वे आँसू , वह इंतज़ार फिर से महसूस करना चाहता हूँ,
संजोना चाहता हूँ शायद हमेशा के लिए !

Tuesday 22 January 2019

Penance


Reminiscences from my diary

Jan 22, 2019
Tuesday 06:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


जब - जब, मैंने -
तुम्हारे
तुम होने की पराकाष्ठा को
समझने का
आंकने का
प्रयास किया है -
तब - तब, तुम्हारे -
तुम होने की परिधि को
विस्तृत होता पाया है !

शायद इसी कारण
मैं -
उन हमेशाओं के 'तुम' से लेकर
इन हमेशाओं के 'तुम' को जोड़ते
इस सेतु पर
चले जा रहा हूँ
बस... चले जा रहा हूँ
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबको पार करता
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबसे पार होता !

कभी - कभी, किसी कदम -
सेतु चरमराता है
पाँव डगमगाता है
साँस फूलता है
मन झूलता है
पर फिर -
अगले कदम के साथ
सेतु, पाँव, साँस, मन -
सब पहले जैसे हो जाते हैं
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबको पार करते
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबसे पार होते !

जब से यह सफ़र शुरू किया, तब से -
तुम -
एक हताशा - से
मेरे साथ - साथ चले हो
साथ - साथ थमे हो
और फिर
साथ - साथ ही आगे बढ़े हो !
हाँ  ...
तुम्हारे
एक 'तुम' से एक नया 'तुम' हो जाना
और
उस नए 'तुम' तक पहुँचने में
कितने ही तुमों से पार होना
एक हताशा ही तो है,  मेरे जीवन की -
एक अनिवार्य हताशा !
और
इस हताशा से लड़ते - लड़ते
मैंने बाकी सभी हताशाओं को
अस्वीकार किया है
उनके साथ -
अन्याय किया है !

किसी भी यात्रा के दौरान
भेंट होती हर हताशा से लड़ना
जूझना
जीतना
हारना
मेरे 'मैं' होने का कर्त्तव्य था
जिसका निर्वाह
मेरा 'मैं' नहीं कर पाया !

और अब
जब यह समझा हूँ
तो सोचता हूँ
किसी शम्स
किसी मुक्तिबोध
किसी सूर्यकान्त, या
किसी अमृता ने
कभी तो
कहीं तो
लिखा होगा
ऐसे ही पाप को जीते - जीते
ऐसे ही पाप के
प्रायश्चित का कोई उपाय !