Thursday 28 February 2019

Everything but name!


Reminiscences from my diary

March 01, 2019
Friday 12:15 AM
Murugeshpalya, Bangalore


एक अजीब - सा वाक़या हुआ आज !
आज, यूँ ही -
बैठे - बैठे, काम करते - करते -
और बीच - बीच में -
पारदर्शी कांच के उस ओर पसरी धूप देखते देखते -
एक दोस्त -
एक पुराना, बहुत अच्छा दोस्त -
याद आ गया, अचानक !

साथ ही याद आ गया याद -
उसका चेहरा
और उसकी हँसी -
और उसके अजीबोगरीब बाल -
और उसका दिन - दिन बदलता चश्मा -
और कागज़ की जुगाली करने की उसकी आदत -
और उसकी सादगी -
और उसके साथ साझा किया खुशनुमा वक़्त -
और उस वक़्त की कई इकाइयाँ !
सब याद आ गए !

पर ...
साँझ बीतने तक भी -
जो नहीं आया याद -
वह था उसका नाम !





You!  The unholy spring! 


Reminiscences from my diary
Feb 15, 2019
4 PM
GS,  CD,  Bangalore

तुम्हें हमेशा शिकायत रही है,  शायद!
क्यों? हमेशा हेमंत और सावन ही क्यों?
क्यों मेरी लेखनी को -
मौसमों की बिरादरी में,  महीनों की सूची में -
आषाढ़,  भादो या मार्गशीष अज़ीज़ हैं?

क्यों मेरी अनगढ़ कविताओं में -
आमूनन -
सावन का सलिल -
कभी किसी रात -
मेरे मनी प्लांट पर ठहरा मिलता है,  तो कभी -
खिड़की की टूटी जाली से मेरे कमरे में झाँकता मिलता है!
कभी - कभी -
मेरे ऑफिस के पारदर्शी काँच पर साँप सा रेंगता मिलता है,  तो कभी -
किसी गौधूलि,  टीन की छत पर धम् धम करता मिलता है!

सर्दी की बात करूँ तो -
क्यों हर बनते बिगड़ते गद्य में,  कहानी में,  संस्मरण में -
दिसंबर का महीना कहीं न कहीं छिपा-
आंच पाने की कोशिश करता है?
कभी अल्मोड़ा की धूप सेंकते त्रिशूल से,  तो कभी -
हिमालय में बिखरे भूटान से!
कभी एलपूज़ा के पानी में  डूबते सूरज से,  तो कभी -
मनाली को और सफ़ेद बनाते पूरनमासी चाँद से?

इन सबके बीच कभी तुम्हारा ज़िक्र नहीं करता - यही शिकायत है न तुम्हारी?

तुम्हें ही नहीं,  कहीं न कहीं,  मुझे भी -
कई बार लगा है ऐसा!
मैंने भी सोचा,  कभी किसी पल -
मैं भी निराला बनने का प्रयास करूँ,  या फिर -
शिवानी की कृष्णकली को,  फिर से,  तुम्हारे इर्द गिर्द् बुनूँ!

अभी यह ख़याल गहरा ही रहा था, और -
मेरी नीली स्याही में तुम्हारे सभी रंग घुलने ही वाले थे कि -
जाने क्या हुआ तुम्हें -
मुझे बयालीस अलग अलग नाम, और-
बयालीस अलग - अलग शक्ल देकर -
बयालीस बार चीथड़ा - चीथड़ा कर दिया!

जब तुमने ऐसा किया,  तो कई तस्वीरें उभरीं -
मेरे तार - तार होते ज़हन में -
गांधी की
जिन्नाह की
अरुंधति की
रुश्दी की
सही की
गलत की
सत्य की
असत्य की
पर हर तस्वीर मौन थी!
मौन या मूक,  पता नहीं!
पर सब देख रहे थे -
मुझे -
और मेरे बयालीस कटे - फटे शरीरों से अलग होती -
तड़पती -
बिलखती -
दम तोड़ती रूह को!

वसंत!
ऋतुराज वसंत!
सुनो!
रंगीन मौसम होने का तकाज़ा -
यह तो नहीं होना चाहिए था कि -
लाल गुलाब की जगह लाल लहू से -
तुम अपनी लाली चुनो!

कलंक है,  कलंक!
श्राप!
बयालीस आत्माओं का श्राप!
बुलाओ किसी मुक्तिदूत को -
किसी बुद्ध को,  कृष्ण को,  या यम को -
हो जिसके पास -
इस श्राप के निवारण का कोई उपाय!

Wednesday 6 February 2019

The last exam, Reminiscences - 5


Reminiscences from my diary
July 31, 2011
Bangalore, 2 AM


27 मई 2011 की उस आखिरी परीक्षा के लिए -
हमेशा की तरह देर होने के कारण -
जल्दी - जल्दी तैयार होते होते -
नज़र पड़ गयी थी सलिल पर !
इंतज़ार कर रहा था हमेशा की तरह -
चुप चाप -
दीवार के सहारे खड़ा हुआ -
सफ़ेद - लाल चैक की कमीज़ -
बाहर निकली हुई -
कंधे पर वही नीला बैग -
बस एकटक निहारे जा रहा था मुझे  ..
और मैं -
नज़रें चुरा रहा था उससे  ...
आँखें भरी हुई थी मेरी !
आखिरी एक्ज़ाम था वह -
- जो हम साथ देने जा रहे थे !
वह नमी, वे आँसू , वह इंतज़ार -
वही A - हॉस्टल के A 118 के दरवाज़े पर -
- छूट गए हैं !
वे आँसू , वह इंतज़ार फिर से महसूस करना चाहता हूँ,
संजोना चाहता हूँ शायद हमेशा के लिए !