Tuesday, 22 January 2019

Penance


Reminiscences from my diary

Jan 22, 2019
Tuesday 06:15 pm
Murugeshpalya, Bangalore


जब - जब, मैंने -
तुम्हारे
तुम होने की पराकाष्ठा को
समझने का
आंकने का
प्रयास किया है -
तब - तब, तुम्हारे -
तुम होने की परिधि को
विस्तृत होता पाया है !

शायद इसी कारण
मैं -
उन हमेशाओं के 'तुम' से लेकर
इन हमेशाओं के 'तुम' को जोड़ते
इस सेतु पर
चले जा रहा हूँ
बस... चले जा रहा हूँ
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबको पार करता
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबसे पार होता !

कभी - कभी, किसी कदम -
सेतु चरमराता है
पाँव डगमगाता है
साँस फूलता है
मन झूलता है
पर फिर -
अगले कदम के साथ
सेतु, पाँव, साँस, मन -
सब पहले जैसे हो जाते हैं
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबको पार करते
समय, काल, दिशा, यथार्थ - सबसे पार होते !

जब से यह सफ़र शुरू किया, तब से -
तुम -
एक हताशा - से
मेरे साथ - साथ चले हो
साथ - साथ थमे हो
और फिर
साथ - साथ ही आगे बढ़े हो !
हाँ  ...
तुम्हारे
एक 'तुम' से एक नया 'तुम' हो जाना
और
उस नए 'तुम' तक पहुँचने में
कितने ही तुमों से पार होना
एक हताशा ही तो है,  मेरे जीवन की -
एक अनिवार्य हताशा !
और
इस हताशा से लड़ते - लड़ते
मैंने बाकी सभी हताशाओं को
अस्वीकार किया है
उनके साथ -
अन्याय किया है !

किसी भी यात्रा के दौरान
भेंट होती हर हताशा से लड़ना
जूझना
जीतना
हारना
मेरे 'मैं' होने का कर्त्तव्य था
जिसका निर्वाह
मेरा 'मैं' नहीं कर पाया !

और अब
जब यह समझा हूँ
तो सोचता हूँ
किसी शम्स
किसी मुक्तिबोध
किसी सूर्यकान्त, या
किसी अमृता ने
कभी तो
कहीं तो
लिखा होगा
ऐसे ही पाप को जीते - जीते
ऐसे ही पाप के
प्रायश्चित का कोई उपाय !



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