Friday, 6 March 2020

The bridge, never-ending!

Reminiscences from my diary

March 06, 2020
Friday 4 pm
GS, Bangalore

सुनो!
तुम्हारे मौन
और मेरी कसक की गिरहों ने
जो सेतु बनाया था -
मैं
कब से, उस पर
मौसम - मौसम
साँस - साँस
चला जा रहा हूँ
चले ही जा रहा हूँ
पर
इसको पार नहीं कर पा रहा हूँ !
जितना बढ़ता हूँ
इसका छोर, उतना ही
दूर होता जाता है
मानो
छोर छोर न हो, क्षितिज हो !

पता है?
जब - जब साँझ घिरती है
तब - तब
इन मूक गिरहों से
एक हूक - सी सुनाई पड़ती है
तब, एक सवाल
एक ही सवाल
मुझे कौंधा जाता है !

तुम इतनी जल्दी
इस पार से उस पार
कैसे पहुँच गए ?
कोई मंत्र, कोई जादू -
जानते थे क्या ?

आख़िर -
हर स्मृति को अस्मृति करने का यह सफ़र -
- हमें साथ ही तो तय करना था ! 

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