Un-knitted!
Reminiscences from my diary
Dec 10, 2021
Friday 02:00 pm
ORRB, GS, Bangalore
कभी कभी कुछ यूँ होता है कि मज़बूत, कसी हुई गिरहों का एक छोर किसी ऐसे के हाथ लग जाता है कि धीरे धीरे - धीरे धीरे आप खुलने लगते हैं। पुल के उस पार से धागा खिंचता है और इधर ... इधर गिरहें ढीली पड़ने लगती हैं। गाहे - बगाहे किसी की निजता आपकी निजता तक पहुँचने का सेतु पा जाती है और शुरू हो जाता है पग - पग नपता सफ़र। आपको लगता है आप खुल रहे हैं, परत दर परत सुलझ रहे हैं, आपकी रूह को, आपकी मुश्क़ को आख़िरकार बंद पिटारे से निजात मिलती जा रही है और आप बसंत में घुल रहे हैं।
और यहीं ... बस यहीं आप धोख़ा खा जाते हैं। आप जिसे खुलना समझते हैं, वह हमेशा ही खुलना नहीं होता।
आप असल में उधड़ रहे होते हैं ...
धागा - धागा ..
रेशा - रेशा ..
लम्हा - लम्हा ..
उधड़न की कसक आपको चकमा दे जाती है। आपको पतझड़ की घुटन भी वसंत की बयार लगती है। मुझे कई बार लगता है कि खुलने और उधड़ने का अंतर उतना ही महीन है जितना एक साँस का होने और न होने तक का फ़ासला।
ख़ैर .. एक वक़्त, एक उम्र के बाद इस अंतर का, इसके होने का फ़र्क़ नहीं पड़ता। खुलें या उधड़ें - दोनों में ही वापसी की कोई सम्भावना नहीं। छूटी हुई ख़ुशबू वापिस बसेरा कभी नहीं पाती ! और उधड़ी ऊन से बुने स्वेटर में भी पहले जैसा निवाच रहता है भला ?
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