Chaos!
Reminiscences from my diary
Oct 14, 2021
Thursday, 2345
Zostel, Ooty
मैं कई बार
अजीब - से
अनमनेपन से
बेचैन हो उठता हूँ !
मैं नहीं जानता खुद को
यहाँ तक कि
नहीं पहचानता अपना शरीर
जैसे, अभी अभी
कुछ पढ़ते हुए
मेरी उँगली, बिना वजह
गर्दन पर चलने लगी
पर मैं
नहीं पहचान पाया
अपना नाखून या
अपनी त्वचा या
अपना स्पर्श !
हैरानियत है !
ऐसी हैरत मुझे
तब भी होती है
जब मैं अपनी ही
किसी तस्वीर से
रु ब रु हो उठता हूँ !
तस्वीर के अंदर का मैं
और तस्वीर के बाहर का मैं
एक होने चाहिए
एक नहीं तो
कमसकम एक - से तो
होने ही चाहिए
हालाँकि उन्हें जोड़ता
कोई पुल
नहीं दिखता मुझे !
मेरी आँखें शायद
पहचान जाती हैं
तस्वीर के किरदार को
पर बूझती रहती हैं
अपना ही ठौर
मानो अभी जहाँ हैं
वह हो बस एक सराय !
और आँखें जानती हैं कि
सराय नहीं होते घर !
कभी कभी
यह कश्मकश
हावी हो जाती है
मेरी ही साँस पर
पर जब बेवजह बेठौर
किसी पगडंडी को नापते
गौर करता हूँ
अपनी साँस पर
तो बस कश्मकश पाता हूँ
साँस नहीं !
यह जो मैं
लिख रहा हूँ
क्या यह मैं
लिख रहा हूँ ?
मैं मोक्ष की नई परिभाषा
लिखना चाहता था
मृत्यु की नहीं !
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