REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
August 2, 2011
5 p.M.
GFC Bungalow, IISc
Bangalore
अधमुंदी आँखें अचानक ही पहुँच गयी बरामदे में। शाम हो आई थी पर लग रहा था मानो आज शाम को इतराने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा हो, मानो आज दिवस और रात्रि ने आपस में सांठ- गांठ कर ली हो कि आज संध्या को अपनी छटा बिखेरने का मौका नहीं देंगे। आसमान में गहरे काले बदरा छाए थे- नीर भरे बदरा। दूर कहीं से आती घंटियो की ध्वनि सांध्य-बेला को गुंजायमान कर रही थी। पहले लगा घाट के पास शिवलिंग से आती आवाज़ है, पर फिर लगा कि न, यह तो इस सुन्दर गोधूलि में अपने अपने घरों को जाती गायों और बैलों के गले में बंधी घंटियो का स्वर है। अहा! मन आह्लादित हो रहा था, क्यों आह्लादित हो रहा था- सोच ही रहा था कि ऊपर वही नीर भरे बदरा अपना नीर बरसाने लगे चहुँ ओर। और बरखा का ये जल अकेला ही स्वातंत्र्य का आनंद नहीं ले रहा था, इसके साथ खेल रही थी पूरब से आती मदमस्त बयार। भीगने का मन कर रहा था। आँगन पार कर के नंगे पाँव ही हरी घास पर चलने लगा। प्रतीत हो रहा था मानो समस्त संसार झूम रहा हो। नहीं जानता था, कहाँ जा रहा हूँ ; बस आँखें हर दिशा में घूम रही थी और पाँव चले जा रहे थे। होंठों पर एक हल्की- सी मुस्कान भी थी और सबसे अच्छी बात यह थी कि आज मानस- पटल पर, मन में , हृदय पर कोई स्मृति दस्तक नहीं दे रही थी या हो सकता है, दस्तक दे रही हो , पर आज द्वार खुल न पा रहे हों। मन बौराया जा रहा था। बौराए वृक्ष, बौराई शाखाएं , बौराई पत्तियां , बौराई वल्लरियाँ एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। ईश्वर की यह सृष्टि , यह प्रकृति ...लग रहा था मानो अपने नैसर्गिक लावण्य को पूर्णतया प्रस्तुत करने के लिए आकुल हो रही हो। कीट- पतंगे, फूल , भँवरे ...सब मस्त थे। हरी घास, सूखी घास , कटी घास , उगी- अधउगी घास , घास से झांकते जंगली फूल, छोटे मेंढक , बड़े मेंढक , अपनी डगर जाते बैल , गाय, उनकी घंटियाँ, ऊपर कहीं छिपा हुआ इन्द्रधनुष , मिटती- घटती लालिमा , गीली मिट्टी और यह मन - हर कोई बावरा हुआ जा रहा था। तभी देखा, कबूतरों का एक जोड़ा गीली ठण्ड से कंपकपा रहा था पर फिर भी प्रणय- कलह में मग्न था। ईश्वर की यह सृष्टि कितनी सुन्दर हो सकती है, यह इन दोनों को देखकर पुष्ट हो रहा था। पाँव के नीचे बीच बीच में कंकण एक मीठी चुभन पैदा कर रहे थे। बावरा मन चाह रहा था कि काश! यह बावरा समय अपनी गति मद्धम कर दे। हर एक क्षण दीप्तिमान हो उठा था। रात्रि की कालिमा धीरे धीरे अपना आधिपत्य गहन करती जा रही थी जो इस गोधूलि के सौंदर्य की इकाई में असंख्य शून्य जोड़ रही थी। और पाँव ..... पाँव तो दिशाहीन- से, बस चले जा रहे थे ....
August 2, 2011
5 p.M.
GFC Bungalow, IISc
Bangalore
अधमुंदी आँखें अचानक ही पहुँच गयी बरामदे में। शाम हो आई थी पर लग रहा था मानो आज शाम को इतराने का अवसर ही नहीं मिल पा रहा हो, मानो आज दिवस और रात्रि ने आपस में सांठ- गांठ कर ली हो कि आज संध्या को अपनी छटा बिखेरने का मौका नहीं देंगे। आसमान में गहरे काले बदरा छाए थे- नीर भरे बदरा। दूर कहीं से आती घंटियो की ध्वनि सांध्य-बेला को गुंजायमान कर रही थी। पहले लगा घाट के पास शिवलिंग से आती आवाज़ है, पर फिर लगा कि न, यह तो इस सुन्दर गोधूलि में अपने अपने घरों को जाती गायों और बैलों के गले में बंधी घंटियो का स्वर है। अहा! मन आह्लादित हो रहा था, क्यों आह्लादित हो रहा था- सोच ही रहा था कि ऊपर वही नीर भरे बदरा अपना नीर बरसाने लगे चहुँ ओर। और बरखा का ये जल अकेला ही स्वातंत्र्य का आनंद नहीं ले रहा था, इसके साथ खेल रही थी पूरब से आती मदमस्त बयार। भीगने का मन कर रहा था। आँगन पार कर के नंगे पाँव ही हरी घास पर चलने लगा। प्रतीत हो रहा था मानो समस्त संसार झूम रहा हो। नहीं जानता था, कहाँ जा रहा हूँ ; बस आँखें हर दिशा में घूम रही थी और पाँव चले जा रहे थे। होंठों पर एक हल्की- सी मुस्कान भी थी और सबसे अच्छी बात यह थी कि आज मानस- पटल पर, मन में , हृदय पर कोई स्मृति दस्तक नहीं दे रही थी या हो सकता है, दस्तक दे रही हो , पर आज द्वार खुल न पा रहे हों। मन बौराया जा रहा था। बौराए वृक्ष, बौराई शाखाएं , बौराई पत्तियां , बौराई वल्लरियाँ एक अलग ही दृश्य प्रस्तुत कर रही थी। ईश्वर की यह सृष्टि , यह प्रकृति ...लग रहा था मानो अपने नैसर्गिक लावण्य को पूर्णतया प्रस्तुत करने के लिए आकुल हो रही हो। कीट- पतंगे, फूल , भँवरे ...सब मस्त थे। हरी घास, सूखी घास , कटी घास , उगी- अधउगी घास , घास से झांकते जंगली फूल, छोटे मेंढक , बड़े मेंढक , अपनी डगर जाते बैल , गाय, उनकी घंटियाँ, ऊपर कहीं छिपा हुआ इन्द्रधनुष , मिटती- घटती लालिमा , गीली मिट्टी और यह मन - हर कोई बावरा हुआ जा रहा था। तभी देखा, कबूतरों का एक जोड़ा गीली ठण्ड से कंपकपा रहा था पर फिर भी प्रणय- कलह में मग्न था। ईश्वर की यह सृष्टि कितनी सुन्दर हो सकती है, यह इन दोनों को देखकर पुष्ट हो रहा था। पाँव के नीचे बीच बीच में कंकण एक मीठी चुभन पैदा कर रहे थे। बावरा मन चाह रहा था कि काश! यह बावरा समय अपनी गति मद्धम कर दे। हर एक क्षण दीप्तिमान हो उठा था। रात्रि की कालिमा धीरे धीरे अपना आधिपत्य गहन करती जा रही थी जो इस गोधूलि के सौंदर्य की इकाई में असंख्य शून्य जोड़ रही थी। और पाँव ..... पाँव तो दिशाहीन- से, बस चले जा रहे थे ....
Good Shantanu, kya likhte ho.
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteTHANK U BHAIA G..:):):)
Deletegood...
ReplyDeleteयूँ तो लोगो ने कहा मुझे , अकेले ना जीयो , मोहब्बत करो ,
मैं ये कहता हूँ इस दुनिया से , मोहब्बत में तन्हा ना रहो , चाहे अकेले जीयो !
फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो !!
फ़र्ज़ करो , अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो !!
simply awesum.....simply beautiful.....
DeleteCouldn't resist to add,
ReplyDeleteFarz karo ye jog bijog ka, hamne dhong rachaya ho
Farz karo bas yehi haqiquat, baki sab-kuch maya ho!
Hey Jyo, I am writing this reply keeping my fingers crossed hoping that u'll see it soon.....Isn't it strange if i say that I saw ur reply (which is actually wonderful) this moment...after so many months......
DeleteThanks for the append! hope to receive your reply soon..:)
Guess, you should add one app/software on your blog which will show all the comments on the home page itself. I had to search this one :)
ReplyDeleteha ha..this was the first comment ever....:)
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