With Love to Kerala....!!
REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
REMINISCENCES FROM MY DIARY.....
August 07, 2006..Thursday
11:55 P.M.
कोचीन से लौटे हुए सात दिन बीत गए हैं। रोज़ सोचता हूँ, कुछ लिखूं .....पर सोच में पड़ जाता हूँ कि कहाँ से शुरू करूँ ....
25 जुलाई ...सुबह 11:25 पर दिल्ली स्टेशन पर नयी दिल्ली- त्रिवेंद्रम केरल एक्सप्रेस आई। पहला कदम रखते ही एक सुखद रोमांच का अनुभव हुआ था .....और उस एक नए एहसास को आज भी महसूस करता हूँ तो स्पंदन की एक नवतरंग सी दौड़ जाती है मस्तिष्क से पादप तक।
दिल्ली ...फरीदाबाद ...मथुरा ...आगरा ... झाँसी ...भोपाल ...चम्बल ...घाटी ... दक्किन क्षेत्र ... नागपुर ... बल्लारशाह ...सरपुर कागज़ नगर ...वारंगल ...विजयवाडा ...बीना ...त्रिचूर ... नेल्लोर ...वेल्लोर ... ओत्तायम ... रामागुंडम ... कोएम्बतूर ... और न जाने कौन कौन से बड़े स्टेशन ....छोटे स्टेशन पड़े थे बीच में उस दो दिन के सफ़र में।
न जाने कितने पहाड़ों के दर्शनों से मन अभीभूत हुआ था। धरित्री को शस्य-श्यामला बनती हुई पुण्यतोया यमुना , कृष्णा , गोदावरी , कावेरी आदि के नयनाभिराम दृश्यों से मन उमंगों की तरंगों में डूबने सा लगा था।
जिन भौगोलिक तत्वों को अब तक कागज़ के पन्नो पर देखा था ... पढ़ा था .... आज वे मेरे सामने हैं .... अहा ! अप्रतिम है ये एहसास ....
केरल में प्रवेश करते ही बारिश की बूंदों में भीगी शीतल पवन में फैली मदमस्त महक को नासिका ने ही नहीं ...अपितु उस द्वार के माध्यम से तन- मन ने भी सहर्ष ग्रहण किया।
पूरे केरल में मानो हरीतिमा को अपने हरे वर्ण को विस्तृत करने का आधिपत्य मिला हुआ था। पूरे राज्य में पेरियार नदी रेल की पटरियों के साथ साथ बह रही थी ...मानो रेलगाड़ी को चुनौती देते हुए कह रही हो कि मैं भी तुमसे कम नहीं .... जलकलशों से भरे काले - सफ़ेद -नीले मेघों के अपूर्व तारतम्य को इतनी नैसर्गिकता के साथ पहले कभी नहीं देखा .......समझ नहीं आया .....मैंने पहाड़ों के बीच में बादलों को देखा था या फिर ....बादलों के बीच में स्वर्णमुकुट से पहाड़ों को परखा था .....
क्या सौंदर्य , अद्भुत नैसर्गिक लावण्य की परिभाषा केरल की धरती को देखे बिना दी जा सकती है ? न ....... नहीं .... मैंने पहली बार प्रकृति के विभिन्न आयामों को एक साथ एकजुट होकर एक ही स्थान का श्रृंगार करते हुए देखा था। फिर चाहे वे कमल के पत्तों पर पड़ी बारिश की छमाछम बूंदों में सूर्य की रश्मियों से बन रहे इन्द्रधनुष हों .....या फिर .....एक ही कतार में खड़े साक्षात अनुशासन का अनुपम दृष्टांत बने नारियल और केले के पेड़ हों ......प्रदूषण मुक्त शीतल हवा हो ....या फिर .... मिलनसार सहायक निवासी हों ......ढलान वाली छतों से सान्ध्य-वर्षा की टपकती बूँदें हों .....या फिर ... टीन की छत पर बजता जलतरंग ......हवा और सुगंधि का मेल हो ....ये फिर ... पहाड़ियों और मेघों का पारस्परिक सामंजस्य ..... हरे भरे पेड़ों और झुरमुटों के बीच छिपे सुन्दर घर हों ... या फिर घर घर में रोपे हुए केले नारियल व अन्य वनस्पतियाँ हों ... पहाड़ों पर बने घर हों .... ढलान वाली सड़कें हों .... या फिर .... सड़क के किनारे नीचे के तले पर बने प्यारे छोटे छोटे घर।
सपनो में आने वालों सा दृश्य साक्षात अवलोकित हो रहा था ....और ....मेरे मन को आलोकित कर रहा था।
क्या उन पलों की तुलना की जा सकती है कभी ?
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