Saturday, 1 September 2012

THE DECEPTIONS, EXQUISITE...!

REMINISCENCES FROM MY DIARY.....

July 06, 2009
Monday, 11:05 p.m.
Hostel H, Thapar
Patiala


कुछ ताने-बाने ....कभी-कभी ,
अनसुलझे से ही रह जाते हैं!
क्यों कभी- कभी,
तारों की महफ़िल में भी
चाँद
यूँ ही तन्हा - सा रह जाता है।

सुलझते-सुलझते ही
क्यों कुछ ताने-बाने ,
बीच में ही -
उलझ से जाते हैं !
तभी तो,
झिंगुरों की झंकार में -
खुद झिंगुर ही
उलझकर रह जाता है।

तार - तार होने पर भी
क्यों कभी कभी -
एक ताना - बाना
दुसरे - से
और
दूसरा
तीसरे-से
अनायास ही जुड़ जाता है।
हाँ!
शायद  इसीलिए
आसमान में उडती
पतंगें
और,
उनकी डोर
यूँ ही -
बिना वजह -
उलझ सी जाती हैं।

और,
कभी - कभी ..
कहीं - कहीं ..
दहकती आग के बीच
कहीं-
कोई पतंगा
उड़कर भी नहीं उड़ पाता है।

वहीँ दूसरी ओर
जानकर भी -
अनजान बनता
भंवरा -
खिले - अधखिले कमलों के जाल में
खुद को
उलझा - सा जाता है।

वाकई ,
कितने अजीब होते हैं -               
कुछ जाल ..
कुछ ताने - बाने ..
कभी सुलझे - से 
और,
कभी - कभी ,
कुछ उलझे - उलझे से .....!!!














                                                           

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