ZINDAGI ROCKS......(2)
Reminiscences from my diary
January 17, 2012
6 p.m.
750, IISc
... दूर गिरते किसी झरने से जैसे पानी की छींटें मुख पर पड़ती हैं और हम सोचते रह जाते हैं कि यह पानी कहाँ से आया ; उसी प्रकार जब कभी किसी राह या किसी मोड़ पर जवाब से टकराते हैं तो हम उसे नहीं पहचान पाते और अंत में रह जाती है उलझती - सुलझती- सी ज़िन्दगी की पहेली ।
जब कभी पतझड़ में गोधूलि के समय एकाकी - सी सड़क पर एकाकी चलता हूँ तो मन कई बार पूछता है , शिकायत करता है - क्या ज़िन्दगी दो पल के लिए भी हमसफ़र नहीं बन सकती थी । पर मेधा धिक्कारती है मन को और शब्द प्रहार करती है कि क्या तुम कभी ज़िन्दगी के साथ चल पाए ! वाकई , क्या मैंने ज़िन्दगी के सूनेपन में रस घोलने का प्रयास किया ! क्या रस- वितान ज़िन्दगी के ठूंठ को संज्ञा के रस से सींचकर हरीतिमा विस्तृत करने का प्रयास किया ! नहीं किया ! तो फिर, ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ! शिकायत तो स्वयं से होनी चाहिए । पर शायद उदासीनता की चादर इतनी गहन हो चुकी है कि खुद से शिकायत करने का भी अवसर नहीं मिलता ।
पतझड़ के मौसम में उन्ही सूनी राहों पर चलते चलते जब उदासीनता की चादर में कुछ सिलवटें आ जाती हैं और इसके महीन ताने - बाने से थोड़ी - सी हवा , थोड़ी सी रोशनी छन छन के शरीर को छूती है , तो अनायास ही मानस पटल पर कुछ खोई कल्पनाएँ जीवंत हो जाती हैं ।
लगता है मानो सावन की संध्या में, जब बयार हो कुछ गीली, कुछ बौराई सी ; जब सुन्दर - सी , नैसर्गिक - सी शांति हो चहुँ ओर और बीच बीच में कहीं दूर से कोई कोयल प्रयास करती हो इस नैसर्गिक शांति को भंग करने का पर जुड़ जाते हों सुर के तार उस कूक से ; जब नीचे बहती हो पतित - पाविनी , शस्य - श्यामला गंगा जिसकी सवारी करते हों फूल , कंकण , सिन्दूर , नारियल, दुर्गा और छोटे बच्चे और मैं खड़ा हूँ हावड़ा के पुल पर - निर्निमेष , आलोकित , एकांत !
सोचते - सोचते अचानक ही यह कल्पना और ऐसी कई कल्पनाएँ कब शून्य में विलीन हो जाती हैं , पता ही नहीं चलता । रह जाता है तो बस शुष्क - सा यथार्थ , शुष्क - सी ज़िन्दगी ।
.... to be contd.
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