ZINDAGI ROCKS......(5)
Reminiscences from my diary
January 26, 2012
5 p.m.
DoMS, IISc
ज़िन्दगी के फ़लसफ़े , ज़िन्दगी की परिभाषा सबके लिए एक - सी कहाँ होती है ! किसी के लिए ज़िन्दगी शुरू से आखिर तक एक कोर कागज़ ही रहती है जिसे किसी लिपि से सजाने का , किसी रंग से भरने का वह "कोई " बहुत मशक्कत करता है और अंत में ज़िन्दगी के सामने घुटने टेक देता है । कभी - कभी ज़िन्दगी किसी के लिए एक रंगीन "कलइडोस्कोप" बन जाती है - एक खुशनुमा चित्र , एक "पैनोरमा" ... मनो जीवन का हर झरोखा एक सुन्दर कल्पना हो या फिर सुन्दर यथार्थ ! पर ... विरले ही ऐसा हो पाता है ! अगर ज़िन्दगी इतनी उदार होती तो बात ही क्या थी !!
मानव तो बस रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही ज़िन्दगी ढूँढने का सफल - असफल प्रयास करता रहता है । किसी के लिए मंदिर की घंटी और आरती की लौ में ज़िन्दगी बसती है , तो किसी के लिए हिमालय की किसी दुर्गम गुफ़ा में .... कोई शिशु की किलकारी में ज़िन्दगी को परिभाषित करता है , तो कोई वृद्ध की झुर्रियों में ... किसी के लिए लाखों का साम्राज्य जीवन है , तो किसी के लिए बूट - पालिश का ढर्रा ... !!
कभी कोई संजोती कल्पनाओं और मरीचिकाओं में ज़िन्दगी पा जाता है , तो कभी- कभी , कोई - कोई दुनिया की भीड़ में ज़िन्दगी को ढूंढता रह जाता है ...!! और इस तरह मनन करते करते यह निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि अक्सर ज़िन्दगी कर्म में परिणत हो जाती है अर्थात व्यक्ति का कर्म ही ज़िन्दगी बन जाता है या यूँ कह लीजिये कि वह अपने कर्म को ही ज़िन्दगी मानने लगता है ... पर, मेरा मन अक्सर इस फ़लसफ़े की विवेचना करता है , विरोध करता है और चूँकि हृदय से अच्छा समीक्षक कोई नहीं ... इसलिए ...इस पर विश्वास करना आवश्यक ही नहीं , अनिवार्य भी है!
और इस प्रकार हृदय यह तो बताता रहता है कि ज़िन्दगी क्या नहीं है , पर कभी यह नहीं बताता कि ज़िन्दगी क्या है ! हृदय भी क्या करे बेचारा , यह ज़िन्दगी रूप ही इतने धारण करती है कि इसे शब्दों में ढालना असंभव - सा लगता है ! हम सदा से यही सुनते हैं कि ईश्वर के असंख्य रूप होते हैं ... पर लगता है कि ज़िन्दगी ने इस मामले में ईश्वर को भी चुनौती दे डाली है !!
..... to be contd.
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