ZINDAGI ROCKS......(3)
Reminiscences from my diary
January 19, 2012
10p.m.
750, IISc
जाते सूरज की मद्धिम पड़ती लालिमा में छत पर खड़ा अक्सर सोचता हूँ कि कैसे ज़िन्दगी सरलता से पानी की तरह अपने रास्ते चुन लेती है ! पर क्या हमारे लिए भी यह उतना ही सरल है ? जब अचानक ही कोई अपना ... कोई बहुत अपना ...कोई आपके प्रतिबिम्ब - सा , आपको परिभाषित करने वाला आपसे दूर हो जाता है , तो लगता है मानो ज़िन्दगी रुक जाएगी पर ... ज़िन्दगी किसी के लिए नहीं रुकती - बस ... जीने के मायने बदल जाते हैं , जीने की वजह बदल जाती है । कितनी अजीब है ये ज़िन्दगी - कब किस के लिए जीना शुरू कर देती है और कब किसको भुला देती है - कोई नहीं जान पाता ! जिसके बिना एक पल भी आगे नहीं सरकता था , उसके बिना ही ज़िन्दगी भागने लग जाती है ।
पर यहाँ भी इसकी शरारत कहाँ समाप्त होती है ! शरारती ज़िन्दगी ! न श्याम , न श्वेत ! पर ज़िन्दगी को दोष देना क्या सही है ? शायद नहीं ... क्योंकि इसने कभी हमसे वादा नहीं किया था ; कहा तो आपके , हमारे उस अपने ने था कि वह सदा आपके साथ रहेगा ; वादा किया था अपनों ने , लोगों ने , ज़िन्दगी ने नहीं कि परछाई - से साथ रहेंगे - तो फिर ज़िन्दगी से शिकायत क्यों ? पर हम उन लोगों से , उन प्रतिबिम्बों से भी कहाँ कुछ कह पाते हैं ! शायद इसलिए क्योंकि ज़िन्दगी का ताना बाना इन्हीं झूठे वादों से बुना जाता है - मानता हूँ की महीन है , कच्चा भी ... पर सुन्दर है , बहुत सुन्दर । और इस सौंदर्य का सोपान करने के इतने आदि हो जाते हैं हूँ कि इन मिथ्या रंगों के बिना यथार्थ ही नष्ट हो जाये ! कई बार यह ख्याल गहरा जाता है कि क्या होगा जब ये कच्चे धागे तार - तार हो जायेंगे । क्या तब यह अस्तित्व बिखर नहीं जायेगा ! पर तभी आसमान में उड़ती पतंग अचानक कटकर पड़ोस के उन नन्हे हाथों में गिरती है और उन नन्हे - पतले होठों पर एक अलौकिक - सी मुस्कान बिखर जाती है - मुझे भी अपनी दुविधा का समाधान मिल जाता है - वास्तव में उन झूठे , टूटते ... बनते ... बिखरते ... गहराते ... छनते वादों में ही ज़िन्दगी छिपी रहती है !
इन्हें जी लो , ज़िन्दगी मिल जाएगी !!
... to be contd.
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