Desires and Dreams of a Siesta ...
Reminiscences from my diary
February 26, 2014
Wednesday
2 AM Bangalore
आज मेरी नींद ने …
चुपचाप …
आसमान की काली चादर से ,
एक तारे को तोड़ा -
-और ,
उसके टूटने से पैदा होती -
- किसी ख्वाहिश को -
- मेरे सपने में पिरो दिया !
बौरा गयी थी, शायद …
किसी की मन्नत में ,
अपना अक्स तलाश रही थी !
एक ज़माना तब था -
- जब सपने -
- किसी भटकते पथिक से -
- रास्ता ढूँढा करते थे -
- नींद की इस गहरी दरिया में …
और ये दरिया -
- डूबी रहती थी -
- अपने ही सलिल में !
एक ज़माना अब है -
- जब इस दरिया का सलिल -
सूख गया है …
तो खोजा करती है यह -
- किसी सपने की थाह !
और, ऐसे ही -
- एक एक दिन बीत जाता है …
रोज़ रात होती है -
और रोज़ , मेरी नींद -
टकटकी लगाये -
आसमान में …
किसी तारे के टूटने की -
- बाट जोहती रहती है !!
Beautiful!
ReplyDeleteThe first paragraph reminded me of Amrita Preetam's famous poem, 'Ambar ki ek paak surahi'. :)
And it's one of the most exquisite compliment I have ever read......Anything and everything related to Amrita is just exquisite! I so damn want to meet her in some world !!
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