My Wretched Diary!
Reminiscences from my diary
Nov 1, 2014 Saturday
IISc, Bangalore
एक अरसा बीत गया है,
न जाने कब से-
मेरी डायरी -
मायूस - सी -
मुरझाई - सी पड़ी है !
कविताओं को -
- सुनने - सुनाने का दौर …
उन शामों का वह सिलसिला -
कब का पीछे छूट चुका है !
वक़्त की गलियों में -
तू गुमशुदा क्या हुआ -
मेरी तो कवितायेँ ही -
बेतक़दीर हो गयीं !
जब डायरी खोली -
तो, वे लफ़्ज़ -
जो कभी चहका करते थे ,
आज बेबस -
बेजान - से दिखाई दिए !
तू क्या गया -
मेरे साथ -
मेरी कविताओं की भी -
रूह ले गया !
शिकायत है वक़्त से -
कब से राह देख रहा हूँ -
- कि आये …
… और मुझे -
अपनी पुर - असरार गलियों में -
ले जाये !
क्या पता , कौन जाने ,
तुझसे -
और तुझसे न सही , तो -
- अपनी किसी कविता की -
भटकती रूह से -
रु ब रु हो जाऊं !
कभी कभी लगता है …
कहीं ये अरसा -
ज़िन्दगी से लम्बा तो नहीं होगा !
shabdo ka jadu...sundar
ReplyDeleteI absolutely love your creations!!!
ReplyDeleteTrust time ..it gives questions and answers. ....both.....but they r rarely together
ReplyDeleteTrust time ....it gives answer s and questions both but they are rarely together
ReplyDeleteSo deep n thoughtful
ReplyDeleteDon't ever let that happen!
ReplyDelete