Monday, 20 October 2014

Destined, to be 


Reminiscences from my diary

February 4, 2012
Saturday, 8 P.M.
#750, IISc, Bangalore



राह चलते हुए ,
बहुत सोच समझकर ,
ध्यान से -
पाँव रखता हूँ !
पग - पग -
संभलकर चलता हूँ !
कहीं जाने - अनजाने , अनायास ही -
कोई फूल -
- पाँव के नीचे न आ जाये !

फूल -
तरह - तरह के -
कोई सुर्ख , कोई श्वेत ,
कोई नील वर्ण -
किसी पर  सलिल की बूँदें ,
तो कोई मरु में लिपटा  !
किसी की पंखुड़ी पीली ,
तो किसी की गौर डंठल !

फूल -
जो शायद -
शिव की ग्रीवा को -
- अलंकृत कर पाता !
और फिर ,
प्रसाद बनकर -
किसी घर के  मंदिर में -
आश्रय पाता !

फूल -
जो शायद -
किसी के बचपन की -
किसी किताब , या -
किसी 'सीक्रेट ' डायरी के -
पन्नों के बीच -
आराम पाता  …
और, सालों बाद -
अचानक ही -
कभी पलटने पर ,
किसी के अधरों पर -
गीली मुस्कराहट  लाता !

फूल -
जो शायद -
दूर जाते किसी अपने के लिए -
एक भेंट बन पाता  …
और,
उस अपने को -
निरंतर उसके अपने की -
टीस महसूस कराता !

पर  …
ऐसा न हुआ !
इन फूलों को -
न कोई मंदिर,
न कोई किताब ,
न ही कोई जेब -
कुछ न मिला !
मिली,
तो धूल  भरी सड़क !
किसी के पाँव की -
- कुचलाहट !
तेज़ हवा की चोटें -
और,
अपनों में ही -
अपनों से -
निराश्रय !

बस ,
इसी लिए ,
राह चलते हुए ,
बहुत सोच समझकर ,
ध्यान से -
- पाँव रखता हूँ !





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