Saturday, 3 October 2015

प्रणय (२/२)

Reminiscences from my diary
May 10, 2010
3 PM, Greater Noida



… अगले ही दिन से कुछ परिवर्तन हुआ ! अब क्रिया यथार्थ से मिलने अकेले नहीं आती थी बल्कि प्रणय को भी साथ लाती थी।  प्रणय - क्रिया ने उसी दिन नाम रख दिया था।  पहले स्पर्श से ही कुछ अलग सी सिहरन दौड़ गयी थी उसमें।  विधाता के उस उपहार को उसका प्रेम समझकर स्वीकार  किया था उसने।  मानवता का एक रूप ऐसा भी  होता है - सुन्दर , शिव , सत्य !

और यथार्थ  …   वह अब भी वैसा  ही था।  अपनी उस संकीर्ण परिधि  के चारों ओर लम्बी - लम्बी दीवारें बनायीं हुई थीं उसने , जिसके अंदर सिर्फ क्रिया का प्रवेश स्वीकार्य था।  और , वह , नन्ही - जान जानता नहीं था उस गुप्त द्वार का रहस्य , जो यथार्थ की आत्मा , उसके हृदय तक पहुँचता था।

और फिर पल - पल बीतते गए ।  वही यथार्थ , वही क्रिया , वही उनके मिलन का एक घंटा , उनके मौन- मूक प्रेम के साक्षी वही लहरें , वही बादल , वही रेत , वही कंकड़ , वही नारियल के पेड़ और वही क्षितिज।  यूँ तो क्रिया के जीवन में यथार्थ ने जाने - अनजाने कई रंग भरे थे , पर प्रणय ने उसकी मातृत्व की तूलिका को अपनी अठखेलियां , अपनी शरारत , अपनी ठिठौली और अपनी खिलखिलाहट के रंगों से सजा दिया।  प्रणय ने तो मानो उसके कंठ को और सुरीला कर दिया।   एक सुन्दर - सा , अति सुन्दर - सा बंधन था यह - मानवता का, वात्सल्य का,  मैत्री का, प्रेम का  … !

पर यथार्थ  … ? पल पल बीतते पलों ने एक बार भी यथार्थ के हृदय में  प्रणय को मन से देखने की , उसे अंक में खिलाने की ,  उसके गालों को अपने होठों से स्पर्श करने की , हवा में उड़ते उसके बालों को संवारने की उमंग पैदा नहीं की। क्रिया ने कई बार सोचा था और एक बार आसमान की ओर देखकर पूछा भी था कि क्या वाकई कोई इतना संवेदना - शून्य हो सकता है ! पर उस एक बार के बाद वह यह बात कभी अपने  मन में नहीं लायी क्योंकि वह जानती और समझती थी अपने यथार्थ को , और ईश्वर से ज़्यादा समय पर विश्वास करती थी। मानती थी कि शायद समय ही यथार्थ के मन में स्नेह का बीज  बो दे जिसके फल क्रिया ही नहीं बल्कि प्रणय भी चखेगा।  पर  … !

क्रिया को सपने नहीं आते थे , शायद इसीलिए प्रणय की तोतली बोली से सपने सुनने में उसे बहुत मज़ा आता था।  बड़ा होता प्रणय क्रिया को जीजी कहकर पुकारता था।  उसके बिना एक पल नहीं रह सकता था।  सारा दिन इर्द - गिर्द डोलता रहता था।  उसके नन्हे पाँव क्रिया की परिक्रमा करते थकते ही नहीं थे। क्रिया की तरह प्रणय का नन्हा मन भी इंतज़ार करता उस एक घंटे का जब वह अपने यथार्थ भैया से मिलेगा।  यथार्थ को भैया कहना क्रिया ने ही सिखाया था।  यथार्थ की आँखें प्रणय को बहुत अच्छी लगती थीं पर अपनी जीजी की आँखें बिलकुल पसंद नहीं थीं। प्रणय अक्सर सोचा करता था कि यथार्थ भैया उससे बात क्यों नहीं करते और यह बात उसने अपनी प्यारी जीजी से भी पूछी थी।  तब क्रिया ने ऐसे ही बोल दिया था - " तुमने कोई अच्छा काम नहीं किया न ! कुछ अच्छा करोगे तो यथार्थ भैया बहुत प्यार करेंगे।  " और उस तोतली बोली ने कहा था - "जीजी, मैं पक्का कुछ अच्छा काम कलूँगा !"

बड़ा हो रहा था प्रणय।  लगभग नौ साल का हो गया था।  अब वह क्रिया के अंक में नहीं होता बल्कि साहिल पर अन्य बच्चों के साथ खेलता था।  दोस्तों के साथ मिलकर समुद्र में दूर तक निशाना लगाता।  पिट्ठू का खेल उसे बहुत पसंद था और पसंद थी उसे यथार्थ की तरह ही नीली आँखों वाली एक लड़की जो नित्य उसी समय अपनी सहेलिओं के साथ खेलने आती थी।  पर उसने यह बात किसी को बताई नहीं थी - न किसी दोस्त को, न ही अपनी जीजी को।  कभी कभी शर्मीला सा बन जाता था प्रणय।  उसके साथियों को उसका नाम बहुत पसंद था और वह शान से कहता - मेरी क्रिया जीजी ने रखा है मेरा नाम !

कद में  बढ़ने के साथ - साथ प्रणय के मन के किसी कोने में छिपी टीस भी बढ़ती जा रही थी - आखिर ऐसा क्या करूँ जिससे मेरे यथार्थ भैया मुझसे बात करें , मुझे प्यार करें ! मन से , हृदय से ,  रिश्ते से और न जाने किस अधिकार से वह यथार्थ को वास्तव में अपना बड़ा भाई मानता था।  अगर क्रिया उसके लिए सर्वस्व थी तो वह यथार्थ को भी अपना सर्वस्व मानता था।  आखिर उसकी नन्ही - सी दुनिया इन्ही दो लोगों से ही तो सुशोभित थी।  

… और फिर एक दिन नाराज़ होकर , या फिर मन में कुछ ठानकर उसने क्रिया के साथ जाना छोड़ दिया।  अब वह यथार्थ से नहीं मिलता।  क्रिया के साथ नहीं जाता।  बात भी कम करता।  उस नन्हे मस्तिष्क में न जाने क्या चल रहा था।  बारह साल का मानस उम्र से अधिक गंभीर हो चला था।  शुरुआत में क्रिया ने भी ध्यान नहीं दिया पर समय के साथ साथ क्रिया को भी अजीब लगने लगा था।  अब न प्रणय उससे गाना गाने के लिए ज़िद करता और न ही उसकी आँखों की बुराई करता।  

एक दिन बीता  … फिर दो, फिर पांच  … यथार्थ के मन में पहली  बार एक हूक सी पैदा हुई।  क्यों ? क्यों आजकल प्रणय क्रिया के साथ नहीं आता ? पर यथार्थ तो यथार्थ था ! मुद्दतों बाद प्रणय  के लिए पनपी इस हूक को भी उसने संवेदना से शून्य अपने हृदय में कहीं दबा दिया।  और फिर  … 

… यथार्थ भी शायद नहीं जानता था कि प्रणय को वह फिर कभी नहीं मिल पायेगा।  पत्थर बनी क्रिया ने एक महीने बाद एक मुड़ा - तुड़ा कागज़ का टुकड़ा लाकर यथार्थ के हाथों में दिया और इतने सालों में पहली बार चली गयी , वह भी दो मिनटों में ! आज न हवा चली , न उसके बाल उड़े , न वह गुनगुनाई ,  न ही कुछ कहा !
यथार्थ उसे जाते हुए बस देखता रहा - दूर तक ! हाथ में कागज़ का वह बेजान - सा टुकड़ा फड़फड़ाने का असफल प्रयास कर रहा था।  आज पहली बार यथार्थ के मन में एक उथल - पुथल मची हुयी थी मानो सिमटा हुआ सा एक तूफ़ान बाहर आने के लिए तड़प रहा हो , और यथार्थ को भी तड़पा रहा हो ! पहले कम, फिर ज़्यादा , फिर और ज़्यादा - यथार्थ के हाथ कांपने लगे थे।  संज्ञा - शून्य से उसके मानस- पटल पर न जाने कितनी ही बातें दस्तक दे रहीं थीं।  पहले जाती क्रिया को और फिर एकटक क्षितिज को बहुत देर तक निहारता रहा।  आँखें क्षितिज से हटीं ही थीं कि यथार्थ की नज़र उस नीली आँखों वाली लड़की पर पड़ गयी जिसे प्रणय चुपके - चुपके निहारा करता था।  कहीं - न - कहीं यथार्थ भी उस चोर - नज़र को चोरी - चोरी ताकता था।  एक हल्की - सी मुस्कराहट यथार्थ के पतले होठों पर बिखर गयी।  सोचा - कल यथार्थ से खुद ही मिलूंगा और उस नीली  आँखों वाली लड़की के नाम से सताऊंगा , बताऊंगा कि मुझे सब पता है ! सोच ही रहा था यथार्थ कि एक झोंका सा आया बयार का।  फड़फड़ाने की आवाज़ आई। नज़र कागज़ पर गयी।  धीरे - धीरे सिलवटें खोली - 

" यथार्थ भैया  … 

बहुत मेहनत के बाद मुझे आपका नाम लिखना आया है। आपका नाम सुन्दर है पर मुश्किल भी तो कितना है। मैंने अपनी हिंदी वाली टीचर से सीखा है। भैया, मैं जा रहा हूँ  - क्यों , कैसे - पता नहीं , या शायद पता है पर कहना नहीं चाहता ! पर जानता हूँ कि आपको पता चल जायेगा - जीजी से, या फिर मेरे दोस्तों से , या फिर मेरे स्कूल की वो हिंदी वाली टीचर से। खैर छोड़िये -
भैया, मुझे पता है कि आप जानते हो मुझे वह लड़की जिसकी आँखें नीली नीली सी हैं , बहुत अच्छी लगती है। है न ? मुझे पता है कि आप मुझे चुपके - चुपके देखते थे।  पर भैया, आपने कभी कुछ कहा क्यों नहीं ? जब भी मिलता , सोचता कि आज आप ज़रूर बात करोगे , गोद में उठाओगे , गालों पर प्यार से एक थपकी दोगे  … !
एक बार क्रिया जीजी से पूछा था मैंने - आप मुझसे बात क्यों नहीं करते। तब जीजी ने कहा था कि जब मैं कुछ अच्छा करूँगा तब आप मुझे ढेर सारा प्यार करोगे। 
भैया , वादा करो कि आप मेरी यह पहली और आखिरी बात मानोगे।  मैं चाहता हूँ कि  जब मैं भगवान जी के पास जाऊं , तब आप मेरी आँखें क्रिया जीजी को दे देना।  आप मेरी मदद करोगे न  … ? मैं हमेशा से चाहता था कि मेरे जीजी मेरे यथार्थ भैया को देखें जो उनसे इतना प्यार करते हैं। 
मैं इससे बड़ा काम नहीं कर पाऊँगा , भैया।  और हाँ ,  भैया, मैंने अपनी कुछ तसवीरें छोटे कमरे की अलमारी में रखी हैं।  जीजी को दिखाना। 
बस एक आखिरी बात , भैया  …! आपको पता है , मैं हमेशा ही आपकी आँखों को छूना चाहता था। इसलिए , एक बार मेरी उँगलियों को अपनी दोनों आँखों पर फेरना  … !
आपसे ढेरों - ढेर बातें करना चाहता हूँ भैया  … पर  … !
मेरी जीजी को मेरी तरफ से ढेर सारा प्यार देना और कहना कि अब उनकी आँखों की बुराई कोई नहीं करेगा। 

चलता हूँ , भैया !

काश … !

प्रणय "

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