Holi
Reminiscences from my diary
Oct 29, 2013
Tuesday
GS, Bangalore
कितनी अजीब बात थी ...
फ़ाग का दिन था -
- और मैं रंग ढूंढने निकल पड़ा !
रंग - जिससे मानस सजा था !
रंग - जिसने मानस रंगा था !
रंग - जो जम गया था -
रंग - जो बस गया था -
रूह तक !
वही रंग ... !
जो अब फीका सा पड़ने लगा था -
- थकने सा लगा था !
जब भी किसी गली से गुज़रा -
- तरह तरह के रंगों ने -
- कोशिश की -
- साज़िश की -
इस रंग को रंगने की !
पर क्या मेल उनका ?
वे क्या ही रंग पाते इसे -
- खुद ही फीके पड़ गए इसके आगे !
नुक्कड़ों पर पाँव रखा -
तो मानो पानी के घड़े भी -
- ताक में थे -
- पर न .... !
रंग निकला ही बहुत पक्का !
जब चौराहे आए -
- तो मानो दिशाओं को भी -
- मिल गया हो अवसर -
- मुझे दिगंबर करने का !
पर यह रंग वे भी नहीं उतार पायीं !
ढूंढते ढूंढते जब -
- पेड़ों के झुरमुटों से गुज़रा -
- तो लताओं ने भी -
- कोशिश की -
- जी जान से -
- रंगे मानस को अपने जाल में -
- उलझाने की ...
रंग को मानस से अलग करने की !
नादान थीं - नहीं समझ पायीं -
- मानस तो पहले ही -
- उलझा था -
रंग में , रंग से !
हार गयीं , वे भी -
- और जाने दिया मुझे -
- और मानस को भी !
दिन बीतता गया -
- कोशिशें हारती गयीं -
साज़िशें हारती गयीं -
न समीर उड़ा पाया -
न सलिल बहा पाया -
गोधूलि ने अपना आँचल बिछा दिया -
तारे धीरे धीरे टिमटिमाने लगे -
पूरा चाँद अपने पर इतराने लगा -
पाँव थक गए थे -
या थके जान पड़ते थे -
तभी आवाज़ आयी -
रंग की थी -
पहचानता था इसे !
कहने लगा - मैं अभी हूँ !
रहूँगा ... कुछ समय और !
इतना भी फ़ीका नहीं पड़ा हूँ !
पर अगर मिट जाऊं -
- तो ढूंढ लेना फिर -
शायद मिल जाऊँ -
- अगले वसंत के फाल्गुन !
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