BHUTAN ! YOU BEAUTY !
Reminiscences from my diary
March 30, 2018
Friday, 7 p.m.
Damchoe's Homestay
Thimphu, Bhutan
कल भी सोच रहा था कि यहाँ इस जगह बैठकर मैं जो कुछ भी देख पा रहा हूँ ; रात या यूँ कहूँ कि गोधूलि के इस पहर में जो भी दूर नज़र तक नज़र आ रहा है - उन सब के बारे में लिखूँ। पर फिर सोचने लगा कि जो कुछ भी लिखने की कोशिश करूँगा और उस कोशिश की जो उपज होगी, क्या वह 'अल्मोड़ा ' से बहुत अलग होगी ? शायद नहीं ! अगर बात करूँ चारों ओर से मुझे और मेरी इस कुर्सी को घेरे पहाड़ों की तो - नहीं ! वे भी हिमालय थे, ये भी हिमालय हैं ... अगर बात करूँ पहाड़ों पर लदे खड़े ठूंठों की .. तो भी नहीं - वे भी चीड़ थे, ये भी चीड़ हैं ... अगर बात करूँ घाटी में बिखरी रोशनियों की - तब भी वही बात, वही स्मृति - वही हरी, पीली, लाल, सफ़ेद टिमटिमाते बल्ब .... ! अंतर है तो यह कि वे रोशनियाँ अल्मोड़ा और रानीखेत की थीं और ये रोशनियाँ अल्मोड़ा से मीलों दूर पर हिमालय में ही बसे थिम्पू की !
पूरा दिन यही सोचता रहा कि हिमालय का विस्तार कितना है ! क्या इसे मापा जा सकता है ? विज्ञान ने, भूगोल-शास्त्रियों ने इसका उत्तर दशकों पहले दे दिया था पर मैं फिर भी सोचता हूँ कि सदियों से सदियाँ देखते, समय को पालते, लम्हों को शरण देते, त्रासदियों से होली खेलते क्या ये पहाड़ ब्रह्मा, विष्णु, महेश ही नहीं हैं ? न मुझे इनका आदि महसूस होता है, न ही अंत ! ऐसा नहीं है कि हिमालय की इन दुर्गम पहाड़ियों को पहले कभी महसूस नहीं किया और ऐसा भी नहीं है कि मैंने इसके हर मिज़ाज़ जो देखा है, पर जितना भी देखा है, महसूस किया है, चखा है, अपने अंदर बसाया है - उन सबसे, संकीर्ण ही सही, पर यही निष्कर्ष निकाल पाता हूँ कि हिमालय का, हिमालय के विस्तार का, बर्फ़ से ढकी फुनगियों का, बंजर छोटी पहाड़ियों का, कच्ची धूप चखती घाटियों का, चीड़ और देवदार की पंक्तियों का, इसमें बसते ऊबड़ - खाबड़ संकरे रास्तों का कोई अंत नहीं !
हाँ ! मेरी नज़र में हिमालय का अस्तित्व अनंत है ! विज्ञान और भूगोल को मानने से ज़्यादा हिमालय के सन्दर्भ में मैं अपने दर्शन - शास्त्र पर विश्वास करना चाहूँगा !
... खैर, अल्मोड़ा और थिम्पू में समानताएँ तो दिखीं लेकिन एक बहुत बड़ा अंतर भी पाया, पाया क्या, जिया !
एक ओर जहाँ अल्मोड़ा में मैंने शिवानी को, शिवानी की कृष्णकली को, नागार्जुन को, पंत को, रास्तों पर बने शिव के मंदिरों को , मंदिरों को ही नहीं साक्षात शिव को, उसके रूपों को इधर - उधर बिखरा पाया, वहीँ यहाँ भूटान की इस घाटी में मैंने बुद्ध को अपनी श्वास में घुला पाया है। यूँ तो मुझे किसी भी धर्म से कोई परहेज़ नहीं ... या यूँ कहूं ... अकबर के दीन-ए -इलाही - सा ही मुझे अपना धर्म लगता है जिसमें हर धर्म, हर ईश्वर, हर गुरु को एक सा माना गया ... पर यहाँ धर्म की परिभाषा सुनकर अच्छा लगा ! दोचुला - पास पर उस बौद्ध धर्म के अनुयायी ने कहा कि धर्म जन्मात नहीं होता ! न ही धर्म का मतलब पूजा करना है ! धर्म का तात्पर्य तो जीने के मार्ग से है ! "It is a way, an art of living!" यह जीवन जीने की कला है !
बुद्ध के सन्देश लिखे हरे, लाल, सफ़ेद, पीले रंगों के छोटे - छोटे झंडे और उन छोटे - छोटे झंडों की बड़ी - बड़ी लड़ियाँ यहाँ वहाँ देखने को मिली। और फिर एक नज़ारा था आँखों के आगे जब न जाने किस वेग से चलती इन चिलचिलाती हवाओं से ये झंडे एक साथ एक दिशा में उड़ रहे थे मानो उन झंडों पर यहाँ की लिपि में लिखे उन सारे मन्त्रों को दिशाओं में घोलने का ... कर्त्तव्य कहूँ या अधिकार ... बस इन्ही के पास है ! अब तक सिर्फ तस्वीरों में देखा था यह सब और आज जबकि अपनी आँखों से इन्हे देखा और उँगलियों से इन्हे छुआ तो लगा मानो एक अलग तरह की कायनाती हवा मेरी संज्ञा में घुलकर मेरी रूह के एक हिस्से को कायनाती कर गयी और वह कायनाती हिस्सा शायद ज़िद कर रहा है ! ज़िद - यहाँ कहीं किसी छोटी - सी कुटिया में रहने की ... यहाँ की हवा में साँस लेने की ... यहाँ के किसी 'ज़ॉन्ग' में कुछ वक़्त बिताने की ... पहाड़ की चोटी पर बसे बुद्ध की उस अखंड प्रतिमा से ढेरों ढेर बातें करने की ... यहाँ के पहाड़ों पर आती - जाती गुनगुनी गुनगुनाती धूप में आँखें मूंदे झपकी लेने की ... यहाँ की खून जमाती सर्दी में दाँत किटकिटाने की ... यहाँ के लोगों की तरह रोज़ मीलों चलने की ... पहाड़ियों के बीच कभी भी, कहीं भी अपना मार्ग बनाती, कल - कल करती छोटी - बड़ी धाराओं में पाँव डालकर घंटों बैठने की ...
... लग रहा है इस ज़िद का ओर तो है पर छोर कोई नहीं !
धुंध और सर्दी उँगलियों को कँपाने लगी हैं शायद ! लिखना तो काफी चाहता हूँ - दोचुला पास के बारे में ... पुनाखा के उस बौद्ध चैत्य के बारे में ... उस सुनहरे बुद्ध के बारे में ... सुनहरे बुद्ध से ऊंचाई में टक्कर लेते उन बर्फीले पहाड़ों के बारे में ... उस हरे - नीले पानी वाली नदी पर बने उस झूलते पुल के बारे में ...
... पर कब लिखूँगा, पता नहीं ! अभी तो एलिफ शफ़ाक़ की नज़रों से इस्तानबुल देखने का मन है !
... बाकी फिर कभी !
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