Existence yet unanswered!
Reminiscences from my diary
July 30, 2018
Monday 08:00 pm
Murugeshpalya, Bangalore
कभी - कभी मेरा मानस - हंस
उड़ते - उड़ते
सात आसमानों के पार
एक ऐसे क्षितिज को स्पर्श कर जाता है
जहाँ मैं सोचने लग जाता हूँ कि -
क्या मेरे अस्तित्व का यथार्थ होना -
- अवश्यम्भावी था ?
...पर फिर सोचता हूँ कि
क्या ऐसा सोचना
नियति पर प्रश्नचिह्न लगाना नहीं है ?
नियति, ब्रह्म, ब्रह्माण्ड -
मेरे लिए -
एक दूसरे के पर्याय ही तो हैं
और मेरे आराध्य भी !
तो क्या आराध्य पर प्रश्नारोपण किया जा सकता है ?
शायद नहीं
या फिर
शायद हाँ !
हाँ, शायद, अगर आराध्य मूक हो
या फिर
गहन मित्र
या फिर
एक मूक मित्र !
आराध्य ने शंख फूँका
संज्ञा संचारित हुई
अणु को सत्ता मिली
पर क्यों, ये सत्ता -
ये अस्तित्व -
जो पाषाण - सा था
और आद्यांत तक
पाषाण - सा ही रह सकता था
समय के साथ -
सलिल बन गया !
जहाँ जो मार्ग दिखा, वही अपना लिया !
सोचता हूँ -
ऐसी श्वास भी क्या श्वास
जो
नियति, ब्रह्म, ब्रह्माण्ड से न लड़े !
जो
अपने मूक मित्र को न झकझोरे !
जो
अनगढ़ नीर के सामने हिमालय - सी न डटी रहे !
खैर ...
कोई तो ऐसा चित्रगुप्त होगा
कोई नियति - प्रबंधक
जिसके बही - खातों में
खंड - खंड ही सही
तार तार ही सही
मेरे प्रश्नों के
उत्तर तो होंगे !
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