Masks
Reminiscences from my diary
March 8, 2019
2: 45 PM
In flight from Bangalore to Delhi
उम्र शायद तीस से पैंतीस के बीच होगी, या हो सकता है, पैंतीस से चालीस के बीच हो! गहरा गेहुँआ रंग! बेहद साधारण पतली छरहरी काया! पतली काया की पतली बाईं कलाई पर बँधा पतला सफ़ेद धागा! हरे, मौसमी और सुनहरे रंगों से रंगी सादी साड़ी! तेल लगे काले बालों को कमर तक लाती एक गूँथ! और, दो आँखें! दो बेहद शांत आँखें! बेहद शांत और उदास आँखें! शायद घबराहट, या फिर कौतुहूल, या फिर कोई याद! आँखें यूँ ही तो उदास नहीं होतीं! कुछ तो बात है! यूँ तो वह मुझसे दूर नहीं बैठी हैं, आगे वाली पंक्ति की मध्य सीट ही है और मैं देख पा रहा हूँ कनखियों से उन मौन आँखों को, मौन अधरों को, मौन चेहरे को, और चेहरे पर धीरे - धीरे उम्र से सांठ - गांठ करती मौन झुर्रियों को!
क्या यह पहली हवाई उड़ान है? या पहली बार बंगलौर से दिल्ली आ रही हैं? या दिल्ली की भीड़ की देहशत? या पति से लड़ाई हुई है? या कल जो होने वाला है, उसकी चिंता? क्या मामला पैसों का, लेन - देन का है? या फिर कोई बच्चा बीमार है? हो सकता है खुद की तबियत ही खराब हो? या फिर मायके की स्मृति डंक मार रही हो? क्या पता बादलों से गुज़रते हुए कोई बिसरी या बिसराई ख़्वाहिश आँख के पानी में तैर गई हो?
ज़हन में कितने सवाल पर जानता हूँ कि जवाब नहीं पा सकूँगा इनका! जो बात जानता हूँ वह यह है कि ये आँखें उत्साह या रोमांच की तो नहीं हैं! और हों भी कैसे जब अगल - बगल, दाएँ - बाएँ, आगे - पीछे, हम जैसे सभ्य, शहरी लोगों की जमात हो! अपने में डूबे - से, और शायद इसी लिए, सूखे - से! यह ज़रूर ही उपेक्षा झेलती आँखें हैं! हाँ! यही बात है! 'एयर - कंडीशन्ड एयरपोर्ट' से लेकर 'एयर - कंडीशंड इंडिगो' की सीट तक का सफ़र आसान तो नहीं रहा होगा इनका! अंग्रेज़ी न आती हो ; भागती, बेतहाशा - भागती भीड़ में अगर एक पल रुककर सामने वाले से कुछ पूछना चाहें और जल्दबाज़ी में दिया गया सामने वाले का जवाब (अगर दिया गया तो) समझ न आने पर दोबारा पूछा जाए ; आस पास बिखरी 'मॉडर्न', 'सॉफिस्टिकेटेड' तकनीकि को समझने में, चीजों को समझने में, लोगों को समझने में यदि पाँच सेकंड से ज़्यादा वक़्त लग जाए, तो शायद गुनाहगारों की सूचि में हम पहले स्थान पर आ जायेंगे और इन भागते - दौड़ते 'सभ्य', 'आधुनिक' लोगों का बस चले तो देश निकाला दे दें ऐसा गुनाह करने वालों को!
लग रहा है कि आज एक बार नहीं, कई बार ऐसे व्यस्य, सभ्य लोगों के कोप का भाजन बनी है यह महिला! दुःखद विरोधाभास तो यह है कि यही 'कल्चर्ड' लोग 'फेसबुक' या अन्य सामाजिक और व्यावहरिक स्थानों पर आज 'महिला दिवस की शुभकामनाएँ ले दे रहे होंगे!
मुखौटे! चारों ओर मुखौटे! और जो इन मुखौटों को न समझे - उनकी उपेक्षा, उनका बहिष्कार!
होना तो यह चाहिए था कि आज इस सीधी - सादी स्त्री का दिन सुंदर होता, सुखद यादगार होता! वजह भी तो हैं - एक नहीं, दो! महिला दिवस पर, तीन सौ पैंसठ दिनों में कम से कम एक दिन पर, औपचारिक ही सही, पर सम्मान! बिना किसी भेदभाव के सम्मान! और पहली उड़ान है तो अनौपचारिक रूप से शुभकामना!
औरों का नहीं पता, पर अपने सीमित अनुभव से यह जाना है कि एक अति साधारण मध्यम वर्ग के लिए पहली हवाई यात्रा और उसके मायने बेहद ख़ास होते हैं और इस बात को समझना इतना कठिन भी तो नहीं है!
दिल्ली आ गया है! यही कामना करूँगा कि उन आँखों की उदासीनता इस सफ़र के साथ ही समाप्त हो जाए और पहली उड़ान के रोमांच को अपना गंतव्य मिल जाए!
(This piece was written while travelling to Delhi in Indigo after witnessing the cold and discriminating behavior of an arrogant air hostess towards a simple, presumably, a homemaker lady from South Indian sub-urbs)
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