Tuesday, 2 July 2019


... while running away to the oblivion


Reminiscences from my diary

July 01, 2019
05:15 pm
GS, 150 ORR, Bangalore.


जितना भी मुझे याद है
वह न पूरी शाम थी,
न पूरी रात !
पता नहीं, घड़ी के डायल में
छोटी सुई कहाँ थी, बड़ी कहाँ !
वह वक़्त, उस वक़्त का होना
दर्ज़ था भी या नहीं, नहीं जानता !
बस -
एक बदहवासी थी
एक घुटन
एक उमस, मानो -
फेफड़ों में साँस ले रहा हो कोई थार
या कोई हिमालय !

और मैं ...
मैं बस भाग रहा था
ऊबड़ - खाबड़ सड़क के दायीं ओर
ऊबड़ - खाबड़ फुटपाथ पर
बेतहाशा भाग रहा था !

शायद कहीं दूर को जाती
आखिरी गाड़ी
स्टेशन छोड़ने वाली थी
या फिर -
सड़क के छोर पर
कोई मुद्दत से इंतज़ार करते - करते
थकता जा रहा था
हो सकता है -
कल्पों का उधार वसूलने कोई
पीछा करते - करते
बहुत करीब आ गया था !

वजह कुछ भी हो सकती है !
मैं नहीं जानता !
मैं जान ही नहीं पाया !
पर एक बात, एक लम्हा याद है !
ठीक से याद है !

जब मैं अपनी सुध - बुध खोया
पत्थर - पत्थर
नुक्कड़ - नुक्कड़
दर-दर लाँघ रहा था तो -
अचानक से ही
सामने से आते तुम टकरा गए थे, और
टकरा गयी थी आँखें -
तुम्हारी और मेरी !

क्या आकाशगंगा में तारे भी
ऐसे ही
टूट जाया करते हैं - अचानक ?

मेरे चेहरे से
कितनी ही ख़ारी बूँदें
छिटक गयीं थीं
तुम्हारी कमीज़ की बायीं आस्तीन पर
शायद !

पर मैं
अभी भी हैरान हूँ यह सोचकर कि -
तुम्हारा चेहरा अचानक से सामने आने पर भी -
मैं चौंका क्यों नहीं !
मेरे पाँव थमे क्यों नहीं !
मैं फिर भी भागता ही क्यों रहा !

तुमने -
पीछे मुड़कर मुझे देखा या नहीं, पता नहीं !
मुझे देखकर अपना रास्ता बदला या नहीं, पता नहीं !
मेरा पीछा किया या नहीं, पता नहीं !
मेरा नाम याद करने की कोशिश की या नहीं, पता नहीं !
और 'गर नाम याद आया तो मुझे पुकारा या नहीं, पता नहीं !

लेकिन जो पता है, वह यह कि -
आँख खुलने पर
एक बार फिर
तुम्हारा होकर भी न होना, और
तुम्हारा न होकर भी होना
मेरी दिन भर की
मेरी उम्र भर की
कसक बन गया !



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