The bones of memories
Reminiscences from my diary
Oct 12, 2021
Tuesday 2310
Zostel, Ooty
सुनो !
मैं चाहता हूँ कि
वे सभी बचे - कुचे लोग -
- जिनकी बची - कुची यादों में
मैं कहीं - न - कहीं अब भी हूँ -
मुझे भुला दें !
क्यों तुम मुझे
ऐसी समीधा नहीं देते
जो
अपार्थिव हो चुकी स्मृतियों को,
स्मृतियों की अस्थियों को -
- चटका दें
और
ऐसे भस्म करें कि -
न जल
न वायु
न अग्नि
न पृथ्वी
न आकाश
कोई भी न बूझ पाए राख का ठौर !
सुनो !
ऐसा हो पाने पर ही
मैं रच पाऊँगा
मोक्ष की एक नई परिभाषा !
No comments:
Post a Comment