The thread of longing
Reminiscences from my diary
Sunday, Aug 28, 2022
0915 pm
Murugeshpalya, Bangalore
पता है -
एक डोर है, जिसका एक छोर
मेरी कलाई पर बँधा है कहीं, शायद
या शायद
मेरे पाँव पर
हो सकता है यूँ भी कि
मेरी साँस की नली के पास हो
इसकी गाँठ
खैर
इससे अंतर नहीं पड़ता कि कहाँ है
पर है
कहीं तो है !
दूसरा छोर कहाँ है ?
इस पृथ्वी पर कहीं
या मेरे हिस्से के आकाश में
या आकाश गंगा में कहीं
या उसके भी पार
किसी और सूरज
किसी और चन्द्रमा
किसी और नक्षत्र पर ?
मैं नहीं जानता
मैं जान ही नहीं पाया !
लेकिन है
इस छोर की ही तरह
दूसरा छोर भी कहीं तो है !
पता है
लोग हँसते है
हैरान होते हैं
पूछते भी हैं कि कैसा धागा ?
अगर धागा होता तो दिखता !
दिखाओ, कहाँ है धागा ?
अब उन्हें मैं क्या बताऊँ !
इतनी महीन डोर
जिसे मैं खुद ही नहीं बूझ पाया हूँ
उन्हें क्या ही और कैसे ही दिखाऊँ !
कसक का तार
तड़प का तार
तार-तार भी हो जाये
तो भी दिखता थोड़े ही है !
बस होता है !
होता तो है !
न जाने कितने जन्मों, कितनी योनियों से
मुझे बाँधे है !
कसक
कैसी कसक
किसके लिए
कोई शै
कोई चेहरा
कोई जगह
कोई घर
कोई अतीत
कोई सुख
कोई दुःख
मैं नहीं जान पाया हूँ !
पता है
यह धागा, यकायक
कभी भी, कहीं भी खिंच जाता है
और जब - जब खिंचता है न
ब्रह्माण्ड के सभी प्रेतों की कसम खाकर कहता हूँ
ऐसी पीड़ उठती है जैसे किसी ने
रोम-रोम से रिसती पीज पर
समुद्र का सारा नमक रगड़ दिया हो
जैसे दंश बुझे सहस्त्र बाणों ने
पूरा शरीर बेंध दिया हो !
मेरी एक-एक रात
कई कई नींदें निगल जाती है
मेरा एक-एक दिन
कई कई पहर लम्बा हो जाता है!
इस जकड़न का
इस भटकन का
कहीं कोई माप नहीं !
सोचता हूँ
क्या उस पार भी
इतनी ही टीस उठती होगी ?
खैर
चेतना के धागे तो इसे नहीं काट पाए
क्या एक बार मृत्यु पर भी विश्वास करना चाहिए ?
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