Eight (dis)connected sentences - part 3 of infinity
Reminiscences from my diary
July 23, 2024
Tuesday 2145 IST
Murugeshpalya, Bangalore
हम
मेंह भरे बादलों को
और नज़दीक से देखने के लिए
चुपचाप चढ़ जाते
बंद दरवाज़ों वाली छतों पर
हम
पराए मुल्क की बारिशों में
तसल्ली से भीगते
और भीगते हुए याद करते
अपनी ज़मीन, अपना पानी, और माएँ
हम
रविवारों को भी मिलने चले जाते
शनिदेव से
और जला आते
सरसों का दीया एक
हम
टूटी फूटी बसों में
यूँ ही चढ़ जाते और
कंडक्टर के पास आने पर
फट से हाथ पकड़ कूद जाया करते
हम
ठण्ड से काँपती शामों में
घूमा करते स्कूटर पर
और गर्दन के ज़रिये सींचते
एक दूसरे की आँच
हम
डर जाया करते
एक दूसरे की नाराज़गी से
और फिर हँसाने का, मनाने का
करते भर-भर जतन
हम
चादर की सिलवटों में ढूँढा करते
एक दूसरे की करवटें
और करवटों में खोजते
एक दूसरे के सपने
हम
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का
फ़र्क़
कभी जान नहीं पाए
कभी मान नहीं पाए
No comments:
Post a Comment