A NIGHT ...FORLORN!
Reminiscences from my diary
November 01, 2013
1 A.M.
Murugeshpalya, Bangalore
सितम्बर के मौसम की …
जाते सावन के सलिल से सीली …
हल्की सर्द रात …
आँख खुल गयी अचानक -
दो बजे थे … शायद !
सामने खिड़की पर लगे पर्दे -
और पर्दों पर छपे -
हल्के गुलाबी फूल -
हवा के साथ ,
उड़ने के लिए -
तड़प रहे थे !
पर्दे के पीछे की जाली पर -
पड़ गयी नज़र -
लगा , तू है -
'उन ' हमेशाओं की तरह !
पर फिर लगा , नहीं …
तू नहीं है -
'इन' हमेशाओं की तरह !
आँखें अभी भी अधमुंदी थी -
और,
यादों के किवाड़ -
खड़क रहे थे -
हवा के साथ -
कभी खुल रहे थे ,
कभी बंद हो रहे थे !
न जाने कैसी स्मृतियाँ थीं -
और कैसा था उनका जाल -
इस पहर में भी ,
गांठें कसी रहीं !
बाहर अभी भी -
हवा सांय सांय कर रही थी …
मानो,
इस हल्की सर्द रात में -
ठिठुर रही हो!
मानस , अभी -
तेरी यादों की गलियों से गुज़रता -
किसी नुक्कड़ पर -
आराम करने के लिए ,
ज़रा ठहरा -
तो किसी की बात याद आ गयी !
किस 'किसी' की - याद नहीं आया ,
पर, उस 'किसी' ने कहा था -
यादें अमृत सी होती हैं !
पर …
ये कैसा अख़लास था -
जो इस पहर के इस क्षण में -
मुझे नीलकंठ बना रहा था !
खिड़की से हटाकर ,
एक नज़र कमरे पर डाली -
दीवार की हर खूँटी पर -
तेरी यादों के ढेर टंगे दिखायी दिए !
कमरे में अँधेरा था !
पता नहीं चल रहा था -
कौन सी याद ,
कौन सी गली ,
कौन सा नुक्कड़ -
किस खूँटी पर था !
ऐसे ही कुछ देर …
अँधेरे से गुफ्तगू करता रहा -
और जब ऊब गया ,
तो, फिर से …
खिड़की की ओर देखने लगा !
सोचा था -
कोई गली तो बंद मिलेगी !
कहीं तो अंत होगा !
पर , न … तू … तुझसे परिभाषित पल -
अनंत - व्योम से !
अविरल - सलिल से !
अन्तर्निहित - संज्ञा से !!
Reminiscences from my diary
November 01, 2013
1 A.M.
Murugeshpalya, Bangalore
सितम्बर के मौसम की …
जाते सावन के सलिल से सीली …
हल्की सर्द रात …
आँख खुल गयी अचानक -
दो बजे थे … शायद !
सामने खिड़की पर लगे पर्दे -
और पर्दों पर छपे -
हल्के गुलाबी फूल -
हवा के साथ ,
उड़ने के लिए -
तड़प रहे थे !
पर्दे के पीछे की जाली पर -
पड़ गयी नज़र -
लगा , तू है -
'उन ' हमेशाओं की तरह !
पर फिर लगा , नहीं …
तू नहीं है -
'इन' हमेशाओं की तरह !
आँखें अभी भी अधमुंदी थी -
और,
यादों के किवाड़ -
खड़क रहे थे -
हवा के साथ -
कभी खुल रहे थे ,
कभी बंद हो रहे थे !
न जाने कैसी स्मृतियाँ थीं -
और कैसा था उनका जाल -
इस पहर में भी ,
गांठें कसी रहीं !
बाहर अभी भी -
हवा सांय सांय कर रही थी …
मानो,
इस हल्की सर्द रात में -
ठिठुर रही हो!
मानस , अभी -
तेरी यादों की गलियों से गुज़रता -
किसी नुक्कड़ पर -
आराम करने के लिए ,
ज़रा ठहरा -
तो किसी की बात याद आ गयी !
किस 'किसी' की - याद नहीं आया ,
पर, उस 'किसी' ने कहा था -
यादें अमृत सी होती हैं !
पर …
ये कैसा अख़लास था -
जो इस पहर के इस क्षण में -
मुझे नीलकंठ बना रहा था !
खिड़की से हटाकर ,
एक नज़र कमरे पर डाली -
दीवार की हर खूँटी पर -
तेरी यादों के ढेर टंगे दिखायी दिए !
कमरे में अँधेरा था !
पता नहीं चल रहा था -
कौन सी याद ,
कौन सी गली ,
कौन सा नुक्कड़ -
किस खूँटी पर था !
ऐसे ही कुछ देर …
अँधेरे से गुफ्तगू करता रहा -
और जब ऊब गया ,
तो, फिर से …
खिड़की की ओर देखने लगा !
सोचा था -
कोई गली तो बंद मिलेगी !
कहीं तो अंत होगा !
पर , न … तू … तुझसे परिभाषित पल -
अनंत - व्योम से !
अविरल - सलिल से !
अन्तर्निहित - संज्ञा से !!
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