In thee...
Reminiscences from my diaryNovember 4, 2013
6 P.M. Bangalore
अक्सर सोचा करता हूँ -
कैसे तुझे मैं पा जाऊं !
न तेरे पास , न तेरे साथ
मैं तो तुझमें ही -
रहना चाहता हूँ !
चले तू जिस भी राह पर ,
बरगद की छाया बन -
तेरा सुकून पाना चाहता हूँ !
और,
अगर हो -
बंजर मरुस्थल ,
किसी शाद्वल को ढूंढती -
तेरी नज़र बनना चाहता हूँ !
यदि,
मरीचिका के छलावे में -
आ जाये, तू कभी -
तब तेरी तृष्णा जो खोजे-
- वो सलिल बनना चाहता हूँ !
चुने अगर कोई नज़्म तू , कभी ,
गुनगुनाने के लिए -
तो उस नज़्म के अक्षर बन -
तेरे होठों पर थिरकना चाहता हूँ !
और,
गाते-गाते
अगर बिगड़ जाये लय -
तो सुरों को पिरोता, संजोता ,
कोई राग बनना चाहता हूँ !
जब कोई रात बुने -
मसरूफ़ियत से -
तेरी आँखों में नींद का जाल ...
तब एक सुन्दर सपना बन -
उस जाल में, सितारे की तरह -
पिरना चाहता हूँ !
और,
अलसाये से दिन में, कभी,
लग जाये अगर आँख ,
तब, तेरे कमरे की दीवार पर -
ढलती धूप बन -
तेरी झपकी में ,
घुलना चाहता हूँ !
किसी शाम , जब तू,
लौट रहा हो घर ,
और, बादलों ने रचाया हो -
षड़यंत्र कोई -
तब,
तेरे चेहरे से -
धीरे - धीरे सरकती -
बारिश की -
पहली बूँद बनना चाहता हूँ!
किसी वीरान बीहड़ कानन में -
बौराये मृग सा-
स्वयं को ढूँढता -
कभी तू चीखे , तड़पे -
तो तेरी नाभि में छिपी -
कस्तूरी बनना चाहता हूँ !
और,
समय की सीमा -
- जब हो समीप,
तब तेरे अक्स में मिलकर -
मोक्ष पाना चाहता हूँ !
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