… Beyond that glass!
August 21, 2014
3:30 p.m.
Bangalore
मेरे और सलिल में , बस …
काँच भर का फासला था !
एक ओर , मैं -
औपचारिकता के लिबास में लिपटा -
सभ्यता का मुखौटा लगाए -
बैठा हुआ था -
खिड़की के बगल में -
अपनी 'डेस्क ' पर !
और, काँच के उस पार …
सलिल बरस रहा था !
अल्हड़ -
अनगढ़ -
मलंग !
काँच पर सांप - सा -
रेंग रहा था !
अनायास ही , मेरी उंगली -
उस बनती , बिगड़ती रेखा के साथ -
चलने लगी , मानो -
इस क्षण -
इस भू पर -
बस यही कर्म हो !
काँच पर निशान उकेरते - उकेरते -
जब सलिल ठहरा ,
तब मेरी उंगली भी ठहर गयी !
और,
जब फिर आगे बढ़ा -
तो मैं भी आगे बढ़ने लगा !
काश! हमेशा ही ऐसा हो पाता !
काश! जब तू रूककर आगे बढ़ गया -
तो मैं भी आगे बढ़ पाता !
अब थोड़ी ही देर में -
वाष्प बन जायेगा यह -
और,
हल्के - हल्के निशान रह जायेंगे
काँच पर -
इसके !
फिर कल ,
कोई सफाई वाला आएगा -
और,
'कॉलिन' छिड़ककर -
इसके निशानों को साफ़ कर देगा !
उसे क्या पता -
निशान सिर्फ वहीँ नहीं बने थे .... !!
Amazing! Beautifully, simply, expressed feelings which go very deep. This becomes my favourite :)
ReplyDeleteKeep carving your feelings into words...
Love the ending!
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