CRAVINGS
Reminiscences from my diary
July 8, 2010
Thursday, 5:00 pm
Munich Airport, Germany
मन करता है ...
कभी छू लूँ -
- किसी ऐसे को ,
जो अविरल हो ...
एक झूठा सच ...
या फिर ,
यथार्थ, कल्पनाओं का ... !
जैसे -
किसी गाँव की -
- धूल चाटती पगडण्डी पर पड़ती -
- मटमैली चांदनी ...
या फिर ,
हरी दूब के किसी सूखे तिनके पर -
- झिलमिलाती,
ओस की कोई बूँद !
लगता है , कभी कभी ,
क्या ज़्यादा मांग रहा है मन ?
पर फिर लगता है, नहीं !
ज़्यादा नहीं ,
बस गुम होना चाहता है -
चीड़ के पेड़ों के झुरमुट में -
- फैलें हुए हों , जो कोसों दूर तक ...
या फिर ,
सागर की फेनिल उर्मियों में ,
जो छूती हों -
- किसी एकांत तट के कंकण !
सोचता हूँ, अक्सर -
- विचारों का क्षितिज ?
न, नहीं ... !
पाना चाहता हूँ -
- कबूतर के गिरते किसी पंख पर -
- एक ऊंची उड़ान -
- किसी चमकते तारे तक ...
या फिर ,
किसी भयावह कानन में ,
अनगिनत जलते - बुझते जुगनुओं की ,
वही जगमगाहट !
मन कहता है ,
यहाँ बहुत शोर है ... !
वही आवाज़ें , वही संगीत !
सुनना चाहता हूँ ,
- चट्टानों में , पत्थरों के बीच -
- किसी की खोई हुई गूँज ...
या फिर,
कभी कहीं तेज़ आंधी में -
- टीन की छत पर,
गिरता सलिल , बजता जलतरंग !
मन करता है ...
No comments:
Post a Comment