Gali Khatriyan, Abupura, Muzaffarnagar!
Reminiscences from my diary
Aug 2, 2016
Friday, 1:25 AM
IGI Airport, Delhi
Waiting for the flight to Bangalore...
मुज़फ्फरनगर की उस संकरी गली के अंत में बाहर से मामूली -से दिखते उस घर की दहलीज़ में घुसते ही लगता था मानो सैकड़ों वर्षों से पिंजरे में कैद किसी पंछी को अनायास ही अनंत व्योम मिल गया हो ! एक अलग महक , एक अलग एहसास, एक अलग ख़ुशी ! अक्सर अँधेरे में जीती उस दहलीज़ में रोशनी के सैकड़ों बल्ब - से जल उठते थे हम बच्चों के शोर से, और माँ की आँखों की चमक ... मैं शायद सब कुछ शब्दों में बयान कर हूँ पर उन दो आँखों की अप्रतिम चमक नहीं !
दहलीज़ पार करते ही खुला आँगन पलकें बिछाए हमारी राह तकता मिलता था। खुला आँगन , खुले आँगन में पसरी धूप , एक कोने में ऐंठा - सा खड़ा हरे रंग का हैंडपंप, बाईं ओर से ऊपर जाने वाला चौड़ा जीना, उस चौड़े जीने की गहरी लाल सीढ़ियां और आँगन द्वार के ठीक सामने उस बड़े चौड़े जीने से सहमाया एक छोटा खड़ा जीना और सकुचाती - सी ही उस जीने की पलस्तर झाड़ती सीढ़ियाँ। यूँ तो दोनों ही सीढ़ियाँ ऊपर ले जाती थीं पर फिर भी मुझे उन हल्की सफ़ेद चूना झाड़ती सीढ़ियों से कुछ अलग - सा लगाव था।
छन से आंगन पार सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर पहुँचकर नाना - नानी से लिपट जाता था। "गॉड ब्लेस् यू माय सन !" की झड़ी लगा देते थे नाना। माथे पर उनका चुम्बन और गालों पर उनकी हथेली की थपकियाँ - संसार के समस्त सुन्दर अनुभव इस स्पर्श में निहित थे। नाना का हंसमुख , सदाबहार चेहरा देखकर अधरों पर स्वतः ही एक अलौकिक मुस्कान बिखर जाया करती थी। नानी अक्सर रसोई से आती हुयी दिखती थी। सादी साड़ी, माथे पर बड़ी - सी लाल बिंदी और खुली बाहें - मुस्काती , लजाती कृष्णवर्णा मेरी नानी नाना के पास आती और नाना के बाहुपाश से मुझे छीनकर अपने आलिंगन में भर लेती।
सीढ़ियां चढ़ने पर एक खुली छत मूक - बधिर पर प्रसन्न बालिका - सी पलकें बिछाए मिलती। उस खुली छत के एक छोर पर रसोई थी जहाँ नानी का निर्विरोध शासन था। रसोई के बराबर में एक वाशबेसिन था। आज तक नहीं जान पाया कि वह वाशबेसिन कभी दीवार की तरह सफ़ेद था भी या नहीं। मैंने तो उसे हमेशा ही पान की पीक से रंगा ही पाया था।
रसोई के ठीक सामने बड़ा कमरा था - बड़ा इसलिए क्योंकि दो कमरों में सब इसे बड़ा मानते थे। यहाँ भी अपवाद था मैं शायद ! औरों को छोटा लगने वाला कमरा ही मुझे हमेशा बड़ा लगा। उस छोटे- से बड़े कमरे में ही मैं हमेशा सोया हूँ शायद। एक डबल - बेड , ब्लैक एंड वाइट छोटा - सा टी.वी. , लकड़ी का एक दीवान और दो कुर्सियां - बस इन्ही सब चीज़ों से सजा होता था वह कमरा। एक और चीज़ है जो मेरे इस कमरे का अनभिज्ञ अंश रही हमेशा - चौलाई के लड्डू। डबल - बेड के बगल वाली अलमारी के ऊपर वाले खाने में नानी हमेशा हम बच्चों के लिए चौलाई के लड्डू रखती थी ...
आज ये सब चंद पन्नों में लिखते - लिखते हर एक पल के साथ , हर एक शब्द के साथ अपने ननिहाल की वही गंध कितनी समीप पा रहा हूँ मैं। ऐसा लग रहा है वह छत , वह दालान , वह हैण्ड - पंप , छोटे - से बड़े कमरे की वह अलमारी , वहां बिखरे चौलाई के कुछ दाने, आँगन की हर ईंट मुझसे मिलने आई हो और शिकायत कर रही हो कि मुद्दत हो गयी है तुमसे मिले हुए , तुम्हे देखे हुए। इस भागती - दौड़ती , भूलती - भुलाती ज़िन्दगी में अगर कुछ मिनट निकाल पाओ तो बंजर पड़ी , धूल चढ़ी उस दहलीज़ को एक बार फिर देख आना ! शायद दम तोड़ती लौ एक बार फिर भभक जाए !
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