Friday, 20 October 2017


My bloody fist!


Reminiscences from my diary

Sunday Oct 1, 2017
10:30 PM
Murugeshpalya, Bangalore


 जिस एक पल तू मुझे -
- हमेशा के लिए छोड़कर गया था -
उस एक पल को -
- मैंने कसकर अपनी मुट्ठी में कैद कर लिया था !
दूर तक जाती तेरी गाड़ी को -
- एकटक देखा था मैंने !
कितनी ही देर बीच सड़क पर खड़ा रहा था मैं !
एक आँख जम - सी गयी थी,
और दूसरी आँख का पानी रुका ही नहीं था !

...और फिर अचेतन देह और अचेतन रूह का बोझ उठाये मेरे कदम -
- जब वापिस लौटे -
- तो मेरे कमरे से पहले -
- तेरे कमरे के दरवाज़े पर रुक गए थे !
उस एक पल, मेरी उँगलियों ने तेरे कमरे के दरवाज़े को -
- ऐसे छुआ था, जैसे तेरे बिखरे बाल सहला रही हों !

... और फिर कमरा अंदर से बंद कर -
- कितनी ही देर अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !
कितनी भारी लगी थी उस कमरे की हवा !
हवा क्या, तेरी मुश्क ही तो थी !
कैसे अपने नाखूनों से तेरे कमरे की दीवारों को -
- कुरेदता रहा था घंटों, मानो -
अपने कुछ निशान तूने मेरे लिए छोड़े हैं, और वे निशान -
- इन दीवारों में छिपे हुए हैं !
घंटों तेरे बिस्तर की मैली चादर को लपेटकर -
- आँख खुले मुर्दे सा -
- लेटा रहा था मैं !
और फिर अचानक से,  उन सिलवटों को नोचने लगा था मैं !
शायद तूने अपनी नींदें छोड़ी थीं उनमें !

तेरी बिखरी किताबों के बिखरे पन्ने -
झूठा गिलास -
एक दो पुराने कपड़े -
कुछ अधजली अगरबत्तियाँ -
कुछ बिखरी राख -
सब कुछ सीने से चिपकाए -
अपनी बंद मुट्ठी को देखता रहा था मैं !

कब वह दिन बीता  ...
कब वह बदहवास - सी शाम आई  ...
खबर ही नहीं लगी थी !

 वह दिन, वह शाम -
- मेरी मुट्ठी को लहूलुहान कर चुके हैं !
खून रिस रिसकर सूख गया है !
पस रिस रिसकर जम गयी है !
हर लकीर तड़प रही है !
कभी तो आ और -
मेरी मुट्ठी को उस लम्हे से आज़ाद करा जा !

क्या एक और एहसान नहीं करेगा मुझपर ?















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