Monday, 15 March 2021

The fence - 2

Reminiscences from my diary

March 15, 2021
Monday, 11.45 pm
Sre

यह मुंडेर 
समंदर थी हमारा ! 
याद है तुम्हें? 
कैसे हम 
घंटों
इन ठूठों - सी दीवारों पर
पीठ टिका
बैठे रहते थे 
इसमें पाँव डाले! 

देखने वालों ने
हमें देखा
समंदर देखा
उसमें भीगे हमारे पाँव देखे
पर नहीं देखीं
वे कितनी - कितनी नावें जो
जो ठुमक - ठुमक 
बहती रहतीं थीं 
तुमसे मुझ तक
मुझसे तुम तक ! 

सुनो ! 
अब सब रेत है 
रेत ही रेत
तपता, चुभता रेत
और
हमारे किस्सों की 
कहानियों की
ठहाकों की
घावों की 
सपनों की
मायूसियों की
वे सभी नौकाएँ
टूटी फूटी
यहीं कहीं बिखरी, दबी पड़ी होंगीं !

जहाँ कहीं भी हो तुम, सुनो ! 
आ जाओ न एक और बार
उन हमेशाओं की तरह 
छन से ! 
मैं, जल्दी - जल्दी 
सब टुकड़े समेट लूँगा, सहेज लूँगा
और तुम 
हमारा समंदर हरा कर देना ! 


No comments:

Post a Comment