The pandemic days
Reminiscences from my diary
May 14, 2021
Friday, 07:40 pm
Murugeshpalya, Bangalore
अजीब-सी ख़ुमारी छा जाया करती है
इन दिनों
वक़्त बेवक़्त
गाहे बगाहे
ठन्डे फ़र्श पर पड़ी रहती है देह
घंटों
चलता रहता है
एक सिलिसिला
कच्ची नींद, गहरे सपने
गहरी नींद, कच्चे सपने
अधपकी नींद, अधपके सपने
नींद के पड़ाव-दर-पड़ाव
टूटे सपने, कभी -
कहानी पूरी करने की
जद्दोजहद करते हैं
कभी
दो पड़ावों के बीच
खुली आँख में
बिखरा जाते हैं
अपने टुकड़े
आँखें जब -
एक बार
कमरे की छत पर टिकती हैं, तो -
टिक ही जाती हैं
देर तक लगी रहती है
टकटकी
एक-आध तरेड़ें हैं
यहाँ - वहाँ
जो अचानक से, कभी-कभार
उभरने लगती हैं
चलने लगती हैं
मचलने लगती हैं
मानो भटकती छिपकली
फिर उभरते हैं चेहरे
कई कई चेहरे
अजीब से
कुछ जाने-पहचाने
कुछ जाने-अनजाने
खुश चेहरे
उदास चेहरे
हँसते चेहरे
रोते चेहरे
बोलते चेहरे
चुप चेहरे
नहीं दिखता पर
महज़ एक चेहरा
जिसे आँख, मन, काया, रूह
सब चाहें देखना
और जब
हाथ की रेखाओं सी ही
ये लकीरें भी
नहीं देतीं साथ, तो -
उँगलियाँ बनाने लगती हैं
ग़ुम शक़्ल
हवा में
एक बार फिर
आँख लगती है
एक बार फिर
कहानी बुनती है
एक बार फिर
आँख खुलती है
एक बार फिर
राख उड़ती है !
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