The cobweb of memories
Reminiscences from my diary
मैं कई बार अनमनी-सी टीस से बेचैन हो उठता हूँ। बहुत बेचैन ! कभी भी .. किसी भी पहर .. किसी भी जगह .. काम करते वक़्त .. चलते वक़्त .. पढ़ते वक़्त .. कुछ न करते वक़्त .. कभी भी ! पर इस बेचैनी, इस कसक की वजह ढूँढने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। हालाँकि मैं कभी भी बिलकुल सटीक कारण नहीं ढूँढ पाया हूँ। महज़ इतना समझा हूँ कि बात स्मृतियों से जुड़ी है। सहस्र दंश लिए फिरता हूँ इनका ! पर क्यों ? नीलकंठ तो बस एक हो ही होना था ! ऐसे अंतरालों में मैं सोचा करता हूँ कि स्मृतियों के जंजाल का कौन सा तार मेरी छाती पर हिमालय खड़ा करता है; क्या उम्र के साथ ये तार तार-तार हो जाते हैं; क्या मैं वाकई चाहता हूँ कि ये हवा हो जाएँ; हो गयीं `गर ये हवा तो क्या मैं इनसे उपजी टीस के बिना अपनी जिजीविषा सींच पाऊँगा; कहीं ये मात्र भ्रम तो नहीं मानों हो बस मरीचिका; और छलावा ही हैं तो इतनी बार छलने क्यों आती हैं; तो क्या मैं इतने समय से किसी थार को नाप रहा हूँ ... कितने ही सवाल .. कितने ही ऊबड़ - खाबड़ - अनगढ़ सवाल बुन जाते हैं अपने आप ही .. उधड़न हो कभी कोई तो साँस में साँस आए !
छटपटाहट के पशमीने में लिपटा मैं यह भी सोचता हूँ कि इतने भरे मन और मस्तिष्क के साथ क्या हम अपना आज आज की तरह जी पाते हैं या जी सकते हैं ? मैं नहीं मानता क्योंकि मैं अपना आज आज की तरह नहीं जी पाता। ऐसा नहीं कि कोशिश नहीं करता ! प्रयास शुरू ही करता हूँ कि झपट पड़ता है स्मृतियों का झुण्ड मुझपर मानो कब से घात में हो और धकेल देता है मुझे आज से बहुत परे ! और आज ? आज बेचारा मायूस होकर बीत जाता है और मुझे ठीक से पता भी नहीं चल पाता। कभी-कभी ध्यान जाता है किसी-किसी आज पर पर तब जब वह कल बन चुका होता है। कौंधा जाती है एक नयी स्मृति जो तब बनी थी जब बाकी स्मृतियाँ मुझे भूत में ले गयीं थीं। खेल है .. अजीब-सा खेल .. जो बस चले जा रहा है, और मैं हारे जा रहा हूँ ..
लगता है धुँधली सीमाओं वाले चौकोरों की एक बिसात बिछी हुई है, या यूँ कहूँ कि फैली हुई है भूत के आयाम में। सपने कौड़ी हो जाते हैं किसी-किसी नींद ! जब-तब जो सपना बिसात के जिस वर्ग में गिर जाता है, वही स्मृति स्वप्न बन लौट आती है मानो, स्वप्न स्वप्न न हो, बस प्रतिबिम्ब हो स्मृति का !
एक नई कश्मकश दस्तक देती है मेरे ज़हन में। भोर होते-होते या फिर रात के ही किसी पहर की किसी इकाई में सपने अक्सर टूट ही जाया करते हैं। जब कोई गहरा सपना टूटता है तो शायद उतने ही टुकड़ों में बिखर जाता है जितने छिटके हों तारे किसी स्याह रात में !
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