Yet another splendid time with The Himalayas!
Reminiscences from my diary
March 06, 2022
Sunday 0700 p,m
Nainital Lake
आज शाम भी वही रास्ता लिया जो पिछले एक सप्ताह से अपना रहा हूँ। वही पहर, वही होटल, वही होटल से लुढ़कती ढलान, ढलान से कटता बड़ा-बाज़ार, उसका ऊबड़ - खाबड़ संकरा रास्ता, उस रस्ते के दोनों ओर हर तरह की दुकानें, उन छोटी-छोटी दुकानों की अजीब - सी मासूमियत, बीचों-बीच पसरे वही पहाड़ी झबरीले कुत्ते, बाज़ार झाँकते पहाड़ों की टोलियाँ और उन पर उगे लम्बे-लम्बे चीड़ और देवदार ! और फिर बड़ा - बाज़ार कब मॉल रोड में मिल जाता है, न मुझे पता चलता है न ही बड़े - बाज़ार की गलियों को !
ख़ैर ...
मैं कह रहा था कि आज भी वैसी ही ठिठुरती शाम और वैसी ही शॉल में लिपटी दिनचर्या। पर अंतर भी था एक ! आज पूरे रास्ते आँखें बड़ी कर कर के चलता रहा। हाँ ! हास्यास्पद लग सकता है पर ऐसा ही हुआ। मैं शायद कोशिश कर रहा था कि जाने से पहले आँखों के आगे पसरा सारा हिमालय इनमें समेट लूँ ! यह लिखते हुए भी मैं खुद को खुद पर मुस्कराने से रोक नहीं पा रहा हूँ। ऐसा भी होता है भला ?! ऐसा होता 'गर तो आँखें महज़ कविताओं में ही नहीं, सच में ही कलेइडोस्कोप होतीं !
ख़ैर ...
कितनी ही बार बीच - बीच में रुक रुककर एकटक ताकता रहा दूर तक फैले चीड़ों को और उन पर चमचमाती गोधूलि की लालिमा को। सौंदर्य का, या यूँ कहूँ, नैसर्गिक सौंदर्य का अनूठा उदाहरण हैं मेरे लिए - साँझ की जाती धूप में नहाये हिमालय के जंगली चीड़। और जो इन्हें सुन्दर न माने, उसकी आँखें आँखें नहीं, दो कौड़ी के काले पत्थर !
कानों में इयरफोन लगाए अपने अंदर उतरा मैं कितने इत्मीनान से झील के किनारे चलता रहा पर बड़ी - बड़ी आँखों के साथ मानो हिमालय ही नहीं , नैनी का पानी भी अपनी आँखों में समेटना चाहूँ (हालांकि अगर ऐसा कभी हुआ भी तो कई जन्म लग जायेंगे आँखों से कचरा निकालते - निकालते)! सूरज ढलते - ढलते जब झील के उस पार एक के बाद एक रंग - बिरंगी रोशनियाँ जलने लगीं और उन सब रोशनियों की रंगीन परछाइयाँ पानी में मचलने लगीं तो कुछ ऐसा दृश्य मेरे सामने आया जिसे हर शाम एकटक देखने के लिए मैं कुछ भी कर जाऊँ !
जुनूनियत है या सुंकूनियत - मैं नहीं जानता ! पर कुछ तो है कि मैं कहीं भी आऊँ , कहीं भी जाऊँ, मन का एक टुकड़ा यहीं अटका रहता है। क्या पता किसी पिछले जन्म में मैं कोई चीड़ ही था यहीं कहीं किसी ढलान पर उगा हुआ !
ख़ैर ...
कॉफ़ी पीने की हल्की -हल्की तलब लग रही है। उँगलियाँ भी सुन्न पड़ने लगी हैं। पर मन है कि यहाँ से उठने को कर ही नहीं रहा है। बीच - बीच में ये बड़ी आँखें भर भी आती हैं पर सोचने पर भी नहीं बूझ पाता कोई कारण ! क्या स्मृतियों का परिताप है जो दस्तक दे रहा है ? या तो इतने ख़्याल हैं कि मैं बूझ नहीं पाता कौन सा अमुक ख़्याल मुझे चुभ रहा है, या फिर कुछ भी नहीं ! आसमान का काला पहाड़ों के हरे पर छितरा गया है। मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ पर मेरे अक्खर-अक्खर माझी अपनी नाव के साथ लिए जा रहा है ! मैं एक बार फिर जा रहा हूँ कई कई बार लौटने के लिए ...
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