Saturday, 29 October 2022

Being stubborn

Reminiscences from my diary


Oct 30, 2022
Sunday, 03.20 am
Delhi


दो अल्हड़ मन
दो अल्हड़ ज़िदें

एक ज़िद ज़िद न करने की
एक ज़िद यह ज़िद न मानने की

हो यूँ जाता है फिर कि -
पास, या बहुत पास
होते हुए भी
दूरियाँ
घट नहीं पातीं

सुनो, यह तो बताओ,
ज़िदों की इस पसोपेश में
कौन और क्या बीतता है? 

वक़्त,
उम्र
या
दो अल्हड़ मन?

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