Saturday, 1 June 2024

Nine (dis)connected sentences - part 2 of infinity

Reminiscences from my diary

June 01, 2024
Saturday 2000 IST
Murugeshpalya, Bangalore


हम 
ओस से भीगे, कोहरे से सने लॉन की 
हरी बैंच पर बैठ 
शॉल में लिपटे 
बिना वजह ठिठुरा करते 

हम 
निदाघ की दोपहरी 
अक्षरधाम के झरोखों से आती 
ठंडी फुहारों वाली हवा 
भरते थे अपनी जेबों में 

हम 
हो जाया करते थे मायूस 
जब कभी रख देते 
शाख से टूटे फूलों पर 
गलती से पाँव  

हम 
पीठ पीछे बस्ता लटकाये 
अक्सर पहुँच जाया करते थे 
अपने पसंदीदा प्रोफ़ेसरों से 
बतियाने, 'दुःख' बाँटने 

हम 
कभी-कभी पाँव-पाँव चलते हुए 
सुना करते थे रेडियो पर 
अस्सी-नब्बे के दशक के 
सदाबहार गाने 

हम 
बौराए थे रात के तीसरे पहर 
दिल्ली की जलती-बुझती
रंगीन रोशनियों को देख 
आसमान के किसी कोने से 

हम 
चखते एक दूसरे की 
अनामिका से 
साईं की विभूति, और बाट जोहते 
चमत्कारों की 

हम 
आस-पास न रहने पर 
बाँधते अपने-अपने 
खिड़की दरवाज़ों पर 
एक-दूसरे का इंतज़ार

हम 
शिद्दती दोस्ती और इश्क़ का 
फ़र्क़ 
कभी जान नहीं पाए 
कभी मान नहीं पाए 

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