Cherrapunji - 1
Reminiscences from my diary
June 24, 2024
Monday 1145 IST
Cherrapunji, Meghalaya
कल गुवाहाटी से शिलॉन्ग, और फिर शिलॉन्ग से चेरापूँजी के सफ़र में बीते कई सफ़र साथ-साथ चले ...
ढेर सारा भूटान
बहुत सारा रानीखेत
थोड़ा-थोड़ा स्कॉटलैंड
कुछ-कुछ मसूरी
यहाँ-वहाँ बैजनाथ
मुट्ठी-भर ऊटी
चुटकी भर वरकला
रास्ते भर कभी खिड़की का शीशा चढ़ाता, कभी उतारता। मुझे दिखते रहे ...
एक कान में क्रॉस लटकाए लड़के
आलूबुखारा बेचती लड़कियाँ
अपने पिताओं के साथ मछली-काँटा लिए जाते बच्चे
घरों से ताकते कई-कई रंगों के जर्मेनियम
दीवारों से उगते सफ़ेद-गुलाबी जंगली फूल
कहीं से भी प्रकट होते छोटे-छोटे तेज़ झरने
रंग-बिरंगी छतरियाँ
गाड़ी के अंदर भी पानी टिप-टिप बरस रहा था, गाडी के बाहर भी। इन पाँच घंटों में मैं सोचता रहा ...
कब सुने थे आखिरी बार मोहरा और फूल-और-कांटे के गाने
क्या ये पहाड़ियों के बीच में बादल हैं, या बादलों के बीच में पहाड़ियाँ
क्या यहाँ से दी गयी पुकारें लौटती हैं कभी, या पहुँच जाती हैं सीधे देवताओं तक
क्या यहाँ के लोग जानते भी हैं चाँद-तारों के बारे में
क्या यायावरों के भी घर होते हैं
क्यों है मुझे बारिश से बेहिसाब मोह, बरसात का भी नशा होता है भला
ऐसा क्या है जो इतनी समानताओं के बाद भी इस यात्रा को कर रहा अलग, ख़ास, बहुत अलग, बहुत ख़ास
इस एक पल जब सुबह के ११.३० बज रहे हैं और मूसलाधार बरसात मुझे और मेरी डायरी को हर ओर से भिगो रही है तो समझ आ रहा है क्यों अलग है यह ट्रिप बाकी यात्राओं से। खैर ...
मेरे कॉटेज का नाम है 'रिमपौंग' ! कमरे को पार कर एक दरवाज़ा है जो खुलता है पीछे की बालकनी पर - मेरी बालकनी ! वहीँ बैठा कुछ-कुछ भीग रहा हूँ, कुछ-कुछ लिख रहा हूँ। पूरा जंगला, सारे खम्बे, दीवारें, घाटी की ओर ले जाती सीढ़ियाँ - सब अलग-अलग जंगली फूलों, काई, बेलों से ढके हैं। सब कुछ तर है - हर पत्ता, हर फूल, हर पंखुड़ी, हर पेड़, हर टहनी, हर कोना, हर पत्थर, हर चट्टान। ..! नीचे छोटी सी नदी है - असल में नदी नहीं, "स्ट्रीम" - अपने पूरे वेग में बहती। इसकी आवाज़ रात भर मेरी गहरी नींद से दिन-भर के सफ़र की थकान चुनती रही। दूर - दूर तक फैली हैं शांत, मौन, सुन्दर, भीगी, हरी-हरी खासी की पहाड़ियाँ !
इन पहाड़ियों ने अभी दस मिनट पहले मेरे लिए ढेर सारे बादल भेजे हैं - आधे रास्ते आ चुके हैं। बादल इतने नीचे हैं और इतने पास भी, कि उन्हें छू लूँ , चख लूँ, भर लूँ अपने बस्ते में ...
टीन की छत पर बूँदें टप-टप गिर रही हैं
सामने वहीँ 'स्ट्रीम' कल-कल बह रही है
झींगुर अपनी झंकार में व्यस्त हैं
मन और मौन अपना ही संगीत बुन रहे हैं
दूसरी कुर्सी पर रखी निर्मल की 'एक चिथड़ा सुख' हवा के साथ फड़फड़ा रही है
दूर कहीं कोई फरीदा ख़ानुम की आवाज़ में सुन रहा है 'मेरे हमनफ़स मेरे हमनवां ..'
मैं इतना खुश हूँ कि मर ही न जाऊँ ...
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